नीरजा हेमेन्द्र की कविताएं: अम्मा सहेजती है भरी दुपहरी से

नीरजा हेमेन्द्र की कविताएं: अम्मा सहेजती है भरी दुपहरी से

[नीरजा हेमेन्द्र मुख्य रूप से शिक्षिका हैं। लेखन के अलावा अभिनय, रंगमंच, पेन्टिंग एवं सामाजिक गतिविधियों में रुचि रखती हैं। इनकी ‘अमलतास के फूल ’, ‘जी हाँ, मैं लेखिका हूँ’ जैसी आधा दर्जन से अधिक कहानी संग्रह और साथ ही ‘अपने-अपने इन्द्रधनुष’ और ‘उन्हीं रास्तों पर गुज़ते हुए’ उपन्यास शामिल हैं। इनकी कई कविता संग्रह भी आ चुकी है। कई सम्मान से सम्मानित जैसे उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का विजयदेव नारायण साही नामित पुरस्कार तथा शिंगलू स्मृति सम्मान, फणीश्वरनाथ रेणु स्मृति सम्मान, कमलेश्वर कथा सम्मान और लोकमत पुरस्कार आदि। कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लेख निरन्तर प्रकाशित।]

(1)

अम्मा सहेजती है

भरी दुपहरी से

अम्मा लौट आई देहरी से

तकती राह, मन में एक चाह

सूप भर घर-आँगन

सजाती-सवाँरती रहती है मगन

फटकती है इच्छाएं

बचा लेती है नेह बन्धन

पुराने दिन-पुरानी रातें

फेंक आती है घूरे पर

अम्मा सहेजती है रिश्ते-नाते

करती है मुंडेर पर गौरैया से…..

आँगन में तुलसी से ढेर-सी बातें

बातें मन की…..बातें अंतर्मन की…..

नयी भोर की लाली में

अम्मा सजाती है घर

मंदिर की घंटियों से अशीषते हैं उसके स्वर

भरी दुपहरी में…….

(2)

ये स्याह रात नहीं है

रात उतरती जा रही है

धीरे…धीरे…धीरे….

छत पर, आँगन में

काली सर्पीली सड़कों को

अपने आगोश में लेती

मन्द-मन्द हिलोरे ले रही

रातरानी के सुगन्धित वृक्ष को

आच्छादित कर देती है

स्याह रंगों से

ये रात मात्र स्याह रात नहीं है

इसमें घुली है चाँदनी भी

चाँद से उतरती चाँदनी

घने अंधकार को चीरती देती है दस्तक

खिड़की पर निःशब्द शनैः…शनै:….शनै:….

अन्धकार परिवर्तित हो रहा है

धीरे…धीरे….धीरे…चाँदनी में।

(3)

एक दिन अषाढ़ का

अषाढ़ की इस ऋतु में

एक दिन

शहर के जन समुद्र से उत्पन्न

नीरवता से दूर

आज मैं आ गई

अपने गाँव में

अरसे बाद अषाढ़ की इस ऋतु में

जल भरे खेतों में

धान रोपते कृषकों को देख

हर्षित होने लगी हैं शीतल हवाएँ

आम और लीचियों के वृक्षों से

उठने लगी है मीठी महक

खेतों में उड़ते सफेद बगुलों के झुण्ड

स्थापित कर चुके हैं संबंध मित्रता का

प्रकृति से मनोहारी ऋतु से

खेत की मेड़ों पर क्रीड़ा करते वे

आमंत्रित करने लगे हैं सावन को

ओ मेरे गाँव!

तुम्हारे इर्द-गिर्द निर्मित होने लगी है

संवेदनाओं से शून्य कंक्रीट की आबादी

यहाँ की हवाएं धुँधली न हो जायें

इससे पूर्व

मेरे उजले गाँव!

तुम मेरे साथ शहर में चलो।

(4)

गाँव में जीवन

बड़े शहर के फ्लैट की

एक छोटी-सी बालकनी में

गिर रही हैं पानी की बूँदें

छम…..छम…..छम……

गमले में उग आयी चमेली के

नन्हें श्वेत पुष्प लहरा-लहर कर

कर रहे हैं अभिनन्दन सावन का

भीनी-भीनी सुगन्ध से महक उठी है

छोटी-सी बालकनी मेरी

शहर में सावन आ गया है

हाँ! सावन ही तो है

एक टुकड़े दिख रहे आसमान में

उड़ रहे हैं जामुनी बादल

मकड़जाल से गुँथे फ्लैटों की दीवारों से

आता गंदला-सा, कूड़े कचरे से भरा पानी

सड़कों पर भरने लगा है

शहर के इस सावन से भीगी

मेरी आँखें धुँधली हो उठी हैं

मन बह चला है गाँव की ओर…..

घर…….दालान…….आँगन…..

खुली छत……खुली दिशाएं…..अबाध पगडंडियाँ…

पूरा आसमान भर उठता था

सावन के श्यामल बादलों से

बारिश का प्रथम फुहार से धुल जाते थे

पत्ते….खेत…..वृक्ष….सृष्टि…..

बारिश में मेरे साथ भीगती गौरैया

मुंडेर पर गीले पंखों को सुखाती

मेरी हथेलियों से चुगती चावल के दाने

उड़ जाती इन्द्रधनुषी आसमान में सैर करने

बागों में पके फालसे, जामुन, आम

मन में बसी है गाँव की मिठास

गाँवों में जीवन है…..

गाँवों की हवाओं में जीवन है

गाँवों के दालानों में जीवन है

शहर के जनसमुद्र में अकेले घूमता व्यक्ति

जीवन की तलाश में शहर में आया था

वह नहीं जान पाया

अपना जीवन गाँव में छोड़ आया था।

-नीरजा हेमेन्द्र

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