फिल्म ‘तीसरी कसम’ : न कोई इस पार हमारा, न कोई उस पार

फिल्म ‘तीसरी कसम’ : न कोई इस पार हमारा, न कोई उस पार

रेणु की चर्चित कहानी ‘तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफ़ाम’ पर आधारित फिल्म ‘तीसरी कसम'(1966) की काफ़ी चर्चा होती रही है। फिल्म के निर्माता गीतकार शैलेन्द्र थे।उन्होंने बहुत उत्साह और जोख़िम से फिल्म का निर्माण कराया था, मगर अपेक्षित सफलता नहीं मिलने पर काफ़ी आहत भी हुए थे, जिसकी एक अलग कहानी है।

कहानी और फिल्म के कथानक में थोड़ी भिन्नता भी है, जो फिल्म निर्माण के माध्यम के मांग के अनुसार किया गया होगा। मसलन, कहानी में हीराबाई का हिरामन के प्रति एक तटस्थता का भाव है। उसके लिए हीरामन एक सहज, सरल, ईमानदार व्यक्ति है, इसलिए वह उस पर भरोसा करती है और उसका संग-साथ उसे अच्छा लगता है। उसके अंदर भावना तो है मगर वह व्यवहारिक दुनिया को जानती है। सम्भवतः नौटंकी में काम करने के कारण और भी। हिरामन के प्रति उसके मन में प्रेमाकर्षण नहीं है,मगर वह हिरामन के भोलापन को पसन्द करती है। आख़िर में जब जाने के समय रेलवे स्टेशन में उससे मिलती है तो उसका गला भी भर आता है। यह मानवीय प्रेम है। कहानी में इस बात के संकेत हैं कि तत्कालीन समय में स्त्री का नौटंकी में काम करने को अच्छी निग़ाह से नहीं देखा जाता था। उस समय हीराबाई का भावुक होना सम्भवतः उसके मन में जीवन की अनिश्चितता और सुप्त आकांक्षा का एक क्षण के लिए कौंध जाने के कारण है।

फिल्म 'तीसरी कसम' : न कोई इस पार हमारा, न कोई उस पार

फिल्म में कुछ अतिरिक्त बातें जोड़ी गई हैं, वह कहानी के परिवेश के अनुरूप ही है। मसलन, ज़मीदार का पात्र। वह सामंती रौब से हीराबाई को खरीदना चाहता है और सफल न होने पर बल प्रयोग का प्रयास करता है।फिल्म में हीराबाई का का हिरामन के प्रति दबा सा प्रेमाकर्षण भी है। वह चाहती है कि वह रोज उसके कार्यक्रम देखने आए और उसके न आने और नाराज हो जाने से बेचैन हो जाती है। हालांकि, उसके अंदर अंतर्द्वंद्व भी है। वह हीरामन से नौंटकी की ‘हक़ीकत’ को छुपाए रखती है और एक जगह कहती भी है- “कब तक उससे सती-सावित्री होने का नाटक करूंगी।” जाहिर है यह आरोपित सामंती मूल्य परिवेश जनित है, जो कहानी के देश-काल के अनुरूप है।उसे ज़मीदार के आगे हिरामन का छोटा दिखना भी आहत करता है। आख़िर में नौंटकी को छोड़कर जाने का एक कारण ज़मीदार द्वारा हिरामन को नुकसान पहुँचाए जाने की सम्भावना भी दिखाया गया है।

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हिरामन सहज, सरल स्वभाव का गाड़ीवान है। पत्नी नहीं है। गवन से पहले उसका निधन हो गया था। दूसरा विवाह नहीं किया है। निर्णय भाभी पर छोड़ दिया है। वह कुंआरी लड़की ढूंढ रही है, जो इस उम्र (गांव के हिसाब से) में कठिन है। हिरामन बेफिक्र है। उसकी दुनिया सीमित है। गाड़ी में माल-असबाब ढोता है। एक बार चोरी का माल ढोने के कारण मुश्किल से जान बची तो चोरी की माल न ढोने की कसम खायी। दूसरी बार बांस ढोने के कारण असुविधा के कारण लोगों से गाली खायी तो बांस न ढोने की कसम खाई। इस बार हीराबाई को गाड़ी से मेले तक (फारबिसगंज) ले जाने का काम मिलता है। वह जनाना सवारी का अभ्यस्त नहीं है। थोड़े संकोच के बाद हीराबाई के बातचीत की सहजता से खुल जाता है। वह हीराबाई के रूप के आकर्षण और मीठी बोली दोनोंदोनों से आकर्षित है। राह के लंबे सफर में कई पड़ाव आते हैं जिससे दोनों घुलमिल जाते हैं।

फिल्म 'तीसरी कसम' : न कोई इस पार हमारा, न कोई उस पार

मेले में पहुँचने पर हीराबाई उसे नौटंकी देखने का आग्रह करती है और ‘पास’ दिलवा देती है। हिरामन अपने साथियों के साथ कार्यक्रम देखता है। उसके साथी भी हीराबाई के रूप के दीवाने हैं। कार्यक्रम शुरू होता है तो दर्शक दीर्घा में कई तरह की बातें होने लगती है। बहुतों की निग़ाह में हीराबाई ‘बाज़ारू औरत’ है , वे उसे ‘रंडी’ तक कहते हैं। ये बातें हीरामन को चुभती हैं और वह उनसे भिड़ जाता है, जिससे कार्यक्रम में बाधा पहुँचती है।

इस तरह हिरामन के अंतस में हीराबाई के प्रति प्रेम उत्पन्न हो गया होता है, जिसे वह ख़ुद नहीं समझ पाता, मगर धीरे-धीरे उसे अहसास होने लगता है, पर व्यक्त नहीं करता। इसी कारण वह उससे नौटंकी का काम छोड़ने का आग्रह करता है। हीराबाई इसको समझने लगती है जिसका ऊपर जिक्र किया जा चुका है।

फिल्म 'तीसरी कसम' : न कोई इस पार हमारा, न कोई उस पार

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फिल्म के अंतिम दृश्य में जब हीराबाई नौंटकी को छोड़कर दूसरे नौंटकी में काम करने वापस जाती है तो हीरामन उससे मिलने रेलवे स्टेशन आता है। हीराबाई उसके पैसे, जो उसके पास धरोहर के रूप में थे उसे लौटाती है और अपना शाल भेंट में देती है। हीरामन हतभ्रत हो जाता है, उसे उम्मीद नहीं थी हीराबाई इतनी जल्दी चली जायेगी। वह अपने दिल की बात दिल मे रखे ठगा-सा महसूस करता है। हीराबाई चली जाती है और वह अपनी खीझ बैलों पर निकालते हुए कहता है कि कसम खाओ किसी नौटंकी वाली बाई को गाड़ी में नहीं बिताएंगे। यही उसकी तीसरी कसम है।

कहानी की पृष्ठभूमि में महुआ घटवारिन की लोककथा गूंजती रहती है जिसे एक सौदागर ख़रीद ले जाता है मगर वह किसी तरह वापस आ जाती है। इस बार हीराबाई को मानो किसी सौदागर ने खरीद लिया है और शायद वह कभी वापस नहीं आएगी! हिरामन पहले अकेले होकर भी अकेला नहीं था क्योंकि उसे इसका अहसास नहीं था। वह अपनी दुनिया में मगन था। हीराबाई के कारण उसके अंदर यह अहसास पैदा हुआ। हिरामन के लिए यह अहसास पहले मीठा था क्योंकि उसमें हीराबाई थी, भले ही उसके कल्पना लोक में। हीराबाई के जाने के बाद उसे इसका वास्तविक बोध होता है। पर किसे दोष दे! “चिठिया हो तो हर कोई बाँचे, भाग न बाँचे कोय!”


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