धरती के लाल : ख़्वाजा अहमद अब्बास की समानता और शोषण से मुक्ति का स्वप्न

धरती के लाल : ख़्वाजा अहमद अब्बास की समानता और शोषण से मुक्ति का स्वप्न

1943 का बंगाल का अकाल भीषण त्रासदी थी। लगभग तीस लाख लोग भूख से काल कलवित हो गए थे। माना जाता है कि यह त्रासदी प्राकृतिक कम मानव निर्मित अधिक थी। चावल के उत्पादन में उल्लेखनीय कमी नहीं होने के बावजूद द्वितीय विश्वयुद्ध की परिस्थितियों के चलते ब्रिटिश सरकार की अदूरदर्शिता के कारण, बर्मा पर जापान के कब्जे से चावल का आयात बन्द हो जाने से सरकार ने सैन्य जरूरत के लिए चावल का बड़ा स्टॉक जमा कर लिया था। इधर जापानी हमले की आशंका से बंगाल में नाव, बैलगाड़ी आदि को जब्त किया जा रहा था। इससे चावल के आवक में तेजी से कमी हुई। दाम बढ़ने लगा। अवसर देख बड़े व्यापारी भी जमाखोरी कर ऊँचे दाम में चावल बेचने लगे। जाहिर है इन परिस्थितियों में जनता भूख से मरने लगी।

इस त्रासदी ने संवेदनशील व्यक्तियों, कलाकारों, लेखकों, फिल्मकारों को प्रभावित किया। विभिन्न जनवादी संगठनों ने राहत के लिए चंदा इकट्ठा किए, राहत कार्य किए। इस पर कितनी ही रचनाएं लिखी गईं। जैन उल आब्दीन ने इस पर मार्मिक चित्र बनाएं। बाद में 1946 में ख़्वाजा अहमद अब्बास ने इप्टा के बैनर तले इस विभीषिका पर ‘धरती के लाल’ फिल्म बनाई। यह कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण थी; एक तो इप्टा के बैनर तले इसकी निर्माण हुई और इसमें इप्टा से जुड़े कलाकारों ने ही भूमिका निभाई। दूसरी यह उस दौर में समाजवादी यथार्थवाद से प्रभावित सम्भवः प्रथम फिल्म थी। फिल्म के आख़िर में ‘साझे की खेती’ पर जोर है, जो तत्कालीन सोवियत संघ के मॉडल पर आधारित है। आजादी से पूर्व इस तरह की फिल्में सेंसर से स्वीकृत कराना आसान नहीं रही होगी।

इस त्रासदी पर कृष्ण चंदर की कहानी ‘अन्नदाता’ काफी चर्चित रही है। इस फिल्म की स्क्रिप्ट भी ‘अन्नदाता’ तथा बंगाल के नाटककार बिजन भट्टाचार्य के दो नाटकों ‘जबानबंदी’ और ‘नवान्न’ से प्रेरित थी। फिल्म का संगीत सितारवादक रविशंकर ने दिया था। संगीतकार के रूप में यह उनकी पहली फिल्म थी। गीत अली सरदार जाफरी, वामिक़ जौनपुरी, प्रेम धवन और नेमीचंद जैन ने लिखे थे। फिल्म में प्रमुख भूमिका निभाने वाले कलाकार बलराज साहनी, दमयंती साहनी, शम्भू मित्र, उषा दत्ता, अनवर मिर्ज़ा, तृप्ति भादुड़ी, हमीद भट्ट, राशिद अहमद, ज़ोहरा सहगल, डेविड, के.एन. सिंह थे।

धरती के लाल : ख़्वाजा अहमद अब्बास की समानता और शोषण से मुक्ति का स्वप्न

फिल्म की शुरुआत गांव (अमीनपुर) के एक कृषक परिवार के सामान्य जीवन से होती है। परिवार में माता-पिता के अलावा उनके दो जवान बेटे हैं। बड़ा बेटा निरंजन (बलराज साहनी) विवाहित है, मगर कोई सन्तान नहीं है, इसलिए उसकी पत्नी विनोदनी दुखी रहती है। सास भी वक्त-बेवक्त ताना मारती है। छोटे बेटे रामू का विवाह होता है, पति-पत्नी (राधिका) में प्रेम है। उनका एक बेटा होता है। सास-ससुर खुश होते हैं मगर भाभी नाख़ुश। इसका कारण उसकी संतानहीनता का अहसास है, मगर बाद में उसका ममत्व जाग जाता है और वह बच्चे से प्रेम करने लगती है, यहां तक की उसकी माँ के समान स्नेह करने लगती है।

शुरुआत से ही फिल्म में अकाल की छाया दिखने लगती है। किसान साहूकार और ज़मीदार के शिकंजे में रहते हैं। व्यापारी अपनी कुटिलता से थोड़ी बहुत धान रहती भी है तो उसे बिकवा लेते हैं। बीज बोने के लिए किसानों ज़मीन और गहने तक बेचने पड़ते हैं, उस पर भी मौसम की बेवफाई। अनाज की कमी होने लगती है, लोग दाने-दाने को मोहताज़ होने लगते हैं। कुछ लोग ज़मीन ज़मीदार के पास बेच देते हैं, कुछ नहीं बेचते मगर सब का हाल एक जैसा। रामू ज़मीन बेचने की जिद करता है मगर निरंजन द्वारा मना करने पर लड़ाई कर के घर छोड़कर चला जाता है। जैसे-तैसे घास-फूँस खाकर निर्वाह होने लगता है, वह भी एक सीमा तक। लोग मरने लगते हैं। भूखमरी एक दूसरे पर अविश्वास भी पैदा करती है।

इधर, कोई रास्ता दिखाई नहीं देने पर गांव वाले शहर (कलकत्ता) जाने का निर्णय लेते है। बिना कुछ समान के सब पैदल चलते हैं; कई रास्ते में ही मर जाते हैं। इस तरह सैकड़ों गांव के लोग शहर आते रहते हैं। मगर शहर में भी कोई काम नहीं है; लोग भीख मांगकर गुजारा कर रहे हैं, मगर भीख भी कितने लोगों को मिले! लोग जूठे पत्तलों पर टूट पड़ते हैं, लड़ते हैं। इस दृश्य पर एक सम्वाद है- “सुनते हैं इंसान पहले बन्दर था अब तरक्की करते-करते कुत्ता हो गया है।” स्त्रियां जिस्म बेचने पर मजबूर हैं। राधिका भी अपने बच्चे की जान बचाने के लिए इस राह पर चलती है। फिल्म में एक सम्वाद भी है- “अब यहां दो चीज ही बिकती है औरत और चावल।”

धरती के लाल : ख़्वाजा अहमद अब्बास की समानता और शोषण से मुक्ति का स्वप्न

कुछ संस्थाएं इस त्रासदी में राहत कार्य करती हैं; कुछ ऐसी भी हैं जिनमे राहत कम राहत का दिखावा ज्यादा है। व्यापारी एक तरफ लगातर ऊँचे दाम पर लाभ के लिए जमाखोरी करते जाते हैं, दूसरी तरफ जन सहायता का ढोंग भी करते रहते हैं। भीख की तरह कुछ संस्थाओं को थोड़ी बहुत राशि भी देते हैं। साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे! बावजूद इसके कुछ जनसंगठन के लोग रहते हैं जो किसानों, मजदूरों की न केवल सम्भव मदद करते हैं अपितु उन्हें उनकी शक्ति का अहसास दिलाने का प्रयत्न करते हैं। उन्हें गाँव लौटने और संगठित होकर कार्य करने को प्रेरित करते हैं।

अंततः ग्रामवासी कई सदस्यों को खोकर पुनः गाँव वापस जाकर खेती करने का निर्णय लेते हैं। लेकिन इस बार उनका लक्ष्य ‘साझे की खेती’ है। तर्क-वितर्क के बाद लोग इसे स्वीकार कर लेते हैं। कुछ लोग आपत्ति करते हैं, इसमें निकम्मों को भी बराबर का हक मिलता है, मगर यह कहा जाता है ऐसे लोगों को ‘साझे’ से अलग कर दिया जाएगा।

इधर, रामू का नाटकीय परिस्थिति में अपनी पत्नी से मुलाकात होती है। दोनों को लोगों के गाँव वापसी का पता चलता है। दोनों गाँव आकर बाहर से लोगों की ख़ुशी देखते हैं, अपने बच्चे को ख़ुश देखते हैं, और यह सोचकर लौट आते हैं कि उनके न मिलने की कसक लोगों के दिलों की आग को बुझने न देगी। राधिका कहती है- “हम दो नहीं दो करोड़ हैं।” और इसके साथ ही फिल्म समाप्त हो जाती है।

फिल्म में समाजवादी लक्ष्य इतना स्पष्ट है कि कई जगह साहूकारों, ज़मीदारों को सीधा ‘दुश्मन’ कहा गया है। यथार्थ के इतने आग्रह के बावजूद फिल्म में एक दो बातें खटकती है मसलन जब सब लोग गाँव लौटते हैं तो राधिका नहीं लौटती। वह ‘पापबोध’ से ग्रसित है; इसमें कहीं-न-कहीं तत्कालीन समाज की ‘नैतिकतावाद’ हावी है। इसी तरह जब किसान साझे की खेती के लिए तैयार नहीं हो रहें होते तो ‘मृत मास्टर की आत्मा’ को आकर समझाना पड़ता है।

बहरहाल, अपने दौर और शासन व्यवस्था की सीमा के भीतर यह फिल्म काफ़ी आगे बढ़ी हुई थी। वह महान प्रगतिशील आंदोलन का दौर था जिसने साहित्य, फिल्म, कला को एक नयी दृष्टि दी। आज इस चरम लूट-खसोट के पूंजीवादी दौर में ऐसी फिल्मों और जीवन दृष्टि की कल्पना अवश्य हाशिए पर है मगर समानता और शोषण से मुक्ति का स्वप्न हर दौर में थी और ख़ात्मे की तमाम कोशिशों के बावजूद आज भी है।


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