प्यासा: ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया…ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है

प्यासा: ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया…ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है

कवि (शाइर) होने की पहली शर्त संवेदनशीलता है। जो व्यक्ति संवेदनशील न हो, जिसे अपने आस-पास की दुनिया की विडम्बनाएं झकझोरती न हों, जो दूसरों के दुःख को देखकर बेचैन न हो जाता हो, वह और चाहे जो कुछ भी हो कवि नहीं हो सकता। कलाकार की यही संवेदनशीलता कुछ हद तक उसे ‘असमान्य’ बना देती है। वह इस अर्थ में कि समाज में औसत व्यक्तित्व को ही सकारात्मक माना जाता है, वहां दुनियादारी के ‘मान्य मूल्य’ से विचलन स्वीकार नहीं किया जाता।

इस ‘मान्य मूल्य’ से विचलन यदि सम्पत्तिशाली प्रभु वर्ग करता है तो यह ‘विचलन’ उसकी ‘अदा’ कही जाती है, और वह अपनी हैसियत के दम पर ‘समाज’ को ठेंगे में रखता है। कलाकार का ‘विचलन’ उसकी रचनात्मकता और अतिरिक्त संवेदनशीलता के कारण होता है। वह थोड़ा, समय, सुविधा प्रेम और शांति चाहता है तो इसका मतलब यह नहीं की वह अपने सामाजिक दायित्वों से पलायन कर रहा होता है। उसकी मांग मुख्यतः उस नज़र की मांग है जिसमें रचनात्मकता का भी मूल्य हो। वह मूल्यहीन अथवा अराजक व्यवस्था नहीं चाहता। मगर दुर्भाग्य से व्यवस्था ऐसी रही है जहां कला की कोई कीमत नहीं होती। और थोड़ी बहुत होती भी है तो स्वार्थ, अहंकार, और तुच्छता, घिसे-पिटे मूल्यों पर टीके, कला की झंडबदारी करने वाले गिरोहबाज नयी प्रतिभाओं को भरसक आगे आने से रोकते हैं।

‘प्यासा’ का शाइर विजय (गुरुदत्त) ऐसा ही बेरोजगार युवा शाइर है। वह अपने भाइयों के लिए नकारा है, क्योंकि वह बेरोजगार है, उसके पास कोई काम नहीं है और शाइरी करना इनकी नज़र में कोई काम नहीं है। यहां तक की उसकी रचनाओं को रद्दी में बेच देते हैं। यही स्थिति अमूमन पूरे परिवेश की है। माँ बेबस है, बेटों पर आश्रित है, मगर उसकी ममता में खोट नहीं है, वह अपने इस ‘नकारे’ बेटे के लिए चिंतित रहती है, रोती है। विजय का स्वाभिमान उसे घर में नहीं रहने देता। वह भटकता है, फांके में दिन काटता है, कभी दोस्त के यहां रात काटता है तो कभी पार्क में। ऐसा नहीं कि वह काम करना नहीं चाहता; एक क्षण वह कुलीगिरी भी करता है। वह उस प्रकाशक के यहां नौकरी करता है जो उसकी रचनाओं को ‘नौसिखिये’ की रचना कह कर नहीं छापता।

प्यासा: ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया...ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है

संयोग से विजय जिस प्रकाशक के यहां काम करता है, उसकी पत्नी मीना(माला सिन्हा) उसके कालेज के दिनों की प्रेमिका है, जो विजय से इसलिए अलग हो गई थी क्योंकि वह मानती है जिंदगी की और भी आवश्यकताएं हैं जो विजय उसे नहीं दे सकता था। हालांकि, विजय यह प्रश्न करता है कि क्या तुमने इसके लिए कभी मौका दिया था? बहरहाल, मीना ‘व्यावहारिक’ दृष्टिकोण अपनाकर भी विजय की भलाई चाहती है, उसके प्रति उसके मन सम्वेदना है। जाहिर है इसका एक कारण यह भी है कि सुविधा की जिस राह को वह चुनी थी वह भी अधूरी है।

मीना के पति मिस्टर घोष (रहमान) को इस ‘सम्बन्ध’ का अहसास था। पुख्ता होने पर वहां से भी विजय की नौकरी समाप्त हो जाती है। इन सारे घटनाक्रमों में विजय की सम्वेदना बार-बार आहत होती है। उसे बार-बार अपमानित होना पड़ता है। इन घटनाक्रमों के बीच ही एक कॉलगर्ल गुलाबो (वहीदा रहमान) उसकी मदद करती है, कभी खाना भी खिलाती है, और सबसे बड़ी बात उसके शायरी की प्रशंसक भी है। गुलाबो ख़ुद ज़माने की मारी विजय में एक सहारा महसूस करती है। लेकिन विजय इतना अधिक आहत हो चुका था कि उसे ऐसा लगने लगता था की उसके साथ कुछ भी सही नहीं हो सकता। वह आत्महत्या के उद्देश्य से प्लेटफार्म तक जाता है, मगर नाटकीय घटनाक्रम में बच जाता है।

इधर दुनिया उसे मृत समझती है। गुलाबो जो उसे वास्तविक प्रेम करती है अपनी जमा पूंजी (गहने) लगाकर उसके रचनाओं को किताब के रूप में प्रकाशित कराती है। रातों-रात उसकी शायरी महत्वपूर्ण हो जाती है। प्रकाशक मांग की पूर्ति नहीं कर पातें। कल तक जो लोग उसकी शक्ल देखना पसन्द नहीं करते थे, उसके संस्मरण सुनाते फिरते हैं। लाभ में हिस्से के लिए उसके दोस्त, भाई, प्रकाशक में प्रतिस्पर्धा और सौदेबाजी होती है।

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इधर, विजय को अपने संग्रह का पता चलता है, मगर उसकी ख़ुशी एक क्षण में हवा हो जाती है जब उसे पता चलता है कि उसे मृत घोषित किया जा चुका है। इस मानसिक आघात से वह विचलित होता है और उसे पागल करार दिया जाता है। इधर उसके मित्र-प्रकाशक-भाई को इसके जीवित होने का पता चलता है तो उनके होश गुम हो जाते हैं।उनको अपना धंधा ख़त्म होते नज़र आता है, क्योकि उनका लाभ ‘मृत विजय’ में ही निहित है। वे षड्यंत्र रचते हैं और उसे विजय मानने से इंकार करते हैं, यहां तक कि उसके भाई भी उसे पहचानने से इनकार कर देते हैं। केवल मीना में उसके प्रति सहानुभूति है। गुलाबो अभी स्थिति से अनजान है।

फिल्म के क्लाइमैक्स में विजय की बरसी का आयोजन है। शहर के तमाम साहित्यिक, मिस्टर घोष, मीना, गुलाबो, विजय के मित्र उपस्थित हैं। विजय भी यह तमाशा देखने पहुंचता है। वहां जो लोग उसकी सूरत तक देखना पसंद नहीं करते, उसकी महानता का गुणगान कर रहे थे। इस असहनीय स्थिति में उसकी जो भावना व्यक्त होती है उसे साहिर के प्रसिद्ध नज़्म में व्यक्त किया गया है- “ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया/ये इंसा के दुश्मन समाजो की दुनिया/ये दौलत के भूखे रिवाजो की दुनिया/ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?”

विजय को जिंदा देख स्थिति ‘बिगड़ने’ लगती है। मिस्टर घोष ऑडिटोरियम की बिजली काटकर भगदड़ मचवा देता है। इधर विजय की आवाज़ पहचानकर गुलाबो उसके क़रीब जाना चाहती है और कुचलकर घायल हो जाती है। विजय को जैसे-तैसे बाहर निकाला जाता है, इसमें उसका अदीब ‘दोस्त’ मदद करता है जिसका विजय के जिंदा रहने में लाभ है।

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कई लोग जिनको विजय के मृत होने में लाभ था, अब विजय के जिंदा होने में लाभ का अवसर देखकर उसके वास्तविक विजय होने की घोषणा के लिए फिर सभा का आयोजन करते हैं। मगर विजय उनकी मंशा पर पानी फेरने सभा में कह देता है कि मैं विजय नहीं हूँ। फिर भगदड़ मचती है जनता विजय को चोट पहुंचाने आगे बढ़ती है, इस बीच विजय का दोस्त (जानी वाकर) उसको वहां से निकालता है।

मीना विजय को कहती है- “इतनी शोहरत का वक्त आया तो तुमने इंकार क्यों कर दिया? आज तुम्हारे दोस्त, भाई सब तुम्हारे साथ है। विजय कहता है ये केवल दौलत के दोस्त और भाई हैं।” मीना फिर जोर देती है- “चलो दो-चार लोग स्वार्थी हैं, उनसे तुम्हें शिकायत है मगर जनता तो तुम्हे पसन्द करती है।” इस पर विजय कहता है- “मुझे किसी से शिकायत नहीं, शिकायत समाज के उस ढांचे से है, जहां व्यक्ति से उसकी इंसानियत छीन लिया जाता है, मुझे शिकायत उस तहज़ीब से है जहां मुर्दा व्यक्ति की पूजा की जाती है और जिंदा व्यक्ति को पैरों तले रौंदा जाता है। जहां किसी के दुःख-दर्द में दो आँसू बहाना बुजदिली समझा जाता है, जहाँ झुककर मिलना कमज़ोरी समझा जाता है। ऐसे माहौल में मैं कभी शांत नहीं रह सकता, इसलिए यहां से दूर चला जाऊंगा।” और वह वहां से सीधा गुलाबो के पास जाता है, जिसको हमेशा उसका इंतज़ार रहता है। और दोनों वहां से दूर चले जाते हैं। एक नई दुनिया की तलाश में!

जाहिर है वह दुनिया कहीं नहीं है। मगर यह प्रतीकात्मक है कि हमें एक नई दुनिया बनानी हैं जहां हर इंसान की इज़्ज़त हो, सम्मान हो। कहा जाता है कि गुरुदत्त फिल्म का सुखद अंत नहीं चाहते थे। उनकी इच्छा थी कि मीना के पास से जाने के बाद फिल्म समाप्त हो जाती। मगर वितरकों के दबाव में उन्हें इस तरह का अंत करना पड़ा। यह भी कि उनके ज़ेहन में यह कहानी काफी पहले से थी मगर उसमें नायक चित्रकार था, जिसे बाद में शाइर किया गया। नायक के शाइर होने से फिल्म में साहिर के बेहतरीन नज़्मों और गीतों को जगह मिली। यह फिल्म जितना गुरुदत्त के बेचैनी को दर्शाती है उतना ही साहिर के जीवन को भी। साहिर के साहित्यिक संघर्ष और प्रेम असफलताओं के यह फिल्म करीब है।

प्यासा: ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया...ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है

फिल्म में गुरुदत्त, वहीदा रहमान, माला सिन्हा की अदाकारी बेमिसाल है। पूरे फिल्म में एक उदासी का वातावरण है, एक अंधेरा-सा छाया है। गुरुदत्त के चेहरे की भंगिमा हो या आँखों की बेचैनी पीड़ा को और गहन कर देती है। यूं आँखों की यह उदासी माला सिन्हा और वहीदा रहमान में भी बेहतरीन प्रकट हुई है। वहीदा रहमान की नशे में डूबी ग़मज़दा ऑंखे कुछ स्थलों पर बेमिसाल है। ‘आज सजन मोहे अंग लगा लो’ के दृश्यांकन में इसे देखा जा सकता है जहां नशा, ग़म और समर्पण का सम्मिलित प्रभाव जीवंत है। फिल्म में अतृप्ति का भाव सर्वत्र है, हर कोई प्यासा है, कोई प्रेम का तो कोई दौलत का। हाँ, केन्द्रीयता प्रेम और संवेदनशीलता की ही है। इस फिल्म को गुरुदत्त और भारतीय सिनेमा के श्रेष्ठ उदाहरणों में उचित ही गिना जाता है। बाद के दिनों में गुरुदत्त के जीवन की त्रासदी और मृत्यु (आत्महत्या) से इस फिल्म की बेचैनी को उनके जीवन से जोड़ा जाने लगा।

इस सम्बन्ध में जयप्रकाश चौकसे जी ने एक जगह लिखा है- “वहीदा संवेदनशील हैं, परंतु गुरुदत्त, गीतादत्त और मीना कुमारी सीमाहीन रूप से अति संवेदनशील लोग थे और भावना की लहर पर सवार कल्पना और यथार्थ की सीमारेखा पार कर जाते थे, जो गुरुदत्त पांचवें दशक के समाज से ख़फ़ा थे वे गुरुदत्त आज की संपूर्ण संस्कारहीनता के युग में क्या करते? उन्हें शायद हर कालखंड में आत्महत्या करना पड़ती। यह दौर उन्हें नि:संदेह पागल बना देता। आज के दौर में संवेदनशील व्यक्ति अपने पर हँस सकने के माद्दे के कारण ही पागल होने से बच सकता है।”


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