महबूब खान की फिल्म ‘मदर इंडिया’ हर किसी को क्यों देखनी चाहिए?

महबूब खान की फिल्म ‘मदर इंडिया’ हर किसी को क्यों देखनी चाहिए?

भारत में स्त्रियों की स्थिति पितृसत्ता के अधीन विरोधाभासी और द्वंद्वात्मक रही है। समय के साथ इसमें परिवर्तन होता रहा और पूर्व कालों की दृष्टि से आज उसकी स्थिति अधिक लोकतांत्रिक कही जा सकती है। उनकी यह स्थिति समाज सापेक्ष और वर्ग सापेक्ष भी रही है। कृषक और श्रमिक वर्ग में स्त्रियां अपेक्षाकृत अधिक अधिकार सम्पन्न रही हैं। वहां वे पुरुषों के बराबर कंधे से कंधा मिलाकर श्रम करती रही हैं। घर के काम-काज अलग। विपरीत परिस्थितियों मे अकेले भी बाल-बच्चों का पालन पोषण करती रही हैं। लेकिन जहां रोटी की समस्या ही विकट हो, स्त्री-पुरुष मिलकर भी जीवन-यापन के न्यूनतम साधन न जुटा पाते हों, वहां अन्य समस्याएं द्वितीयक हो जाती हैं।

स्वतंत्रता से पूर्व और कुछ पश्चात तक गाँवों में सामंती-ज़मीदारी प्रथा प्रबल थी; उस पर निचले स्तर पर सुदखोरों का जाल बिछा रहता था, जिसमे फँसकर किसानों की पीढ़ियाँ नहीं निकल पाती थीं। स्थिति यहां तक पहुँच जाती थी कि सूद की रकम के बदले अनाज का अधिकांश हिस्सा साहूकार के पास चला जाता था। अकाल, बीमारी आदि प्राकृतिक प्रकोपों के समय स्थिति और भी विकट हो जाया करती थी, जहां जिंदगी बचा पाना भी कठिन होता था।

महबूब खान की फिल्म 'मदर इंडिया' हर किसी को क्यों देखनी चाहिए!

‘मदर इंडिया’ (1957) में इस किसानी जीवन की त्रासदी तो है ही, एक स्त्री के संतान प्रेम और लोक मर्यादा पर अटूट आस्था का चित्रण भी है। लोक मर्यादा पर आस्था इस कदर की उसकी रक्षा के लिए एक माँ अपने संतान को गोली मारने में पीछे नहीं हटती। लेकिन इस ‘लोक मर्यादा’ की सीमा यह है कि एक साहूकार कई पीढ़ियों से उनका शोषण कर रहा है मगर कोई उसका विरोध नहीं करता। वे कर्ज की अदायगी को अपना ‘धरम’ मानते हैं मगर बेईमानी की सूद पर आँख मूंद लेते हैं। और ‘बिरजू’ जैसा नयी पीढ़ी का युवा जब इस षड्यंत्र का विरोध करता है तो अकेले पड़ जाता है। यहां ‘गोदान’ का यह कथन याद आता है- “जब पाँव के नीचे गर्दन दबी हो तो उसे सहलाने में ही भलाई है।” अवश्य यह स्थिति रही है, मगर मुक्ति के लिए संघर्ष के अलावा उपाय क्या है?

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‘मदर इंडिया’ की ‘राधा’ (नरगिस) का चरित्र उदात्त है। वह कृषक कन्या है, इसलिए विवाह के अगले दिन से ही श्रम करना प्रारम्भ कर देती है। उनका ज़मीन सुखीलाला के यहाँ गिरवी है। पति-पत्नी के कठोर श्रम के बाद भी फसल का तीन हिस्सा सूद अदायगी में चला जाता है। आय का श्रोत बढ़ाने के लिए वे बंजर भूमि को कृषि योग्य बनाने का प्रयत्न करते हैं। इस उपक्रम में उसके पति शामू के दोनों हाथ कुचल जाते हैं। वह काम करने योग्य नहीं रह जाता। अवसाद ग्रस्त हो वह ख़ुद को परिवार पर बोझ समझने लगता है और आत्म-हत्या की आकांक्षा से हमेशा के लिए घर छोड़ कर चला जाता है। कुछ समय बाद राधा के सास की भी मृत्यु हो जाती है।

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राधा पर जैसे दुःखों का पहाड़ टूट पड़ता है। उसके तीन छोटे बच्चों का उसके सिवा कोई सहारा नहीं रह जाता। इसी बीच बाढ़ और तूफान आने से सब-कुछ तहस नहस हो जाता है। राधा के सबसे छोटे बच्चे का निधन हो जाता है। दोनों बच्चे भूख से बेहाल रहते हैं। बच्चों की जान बचाने राधा एक क्षण के लिए सुखीलाला के पास अपनी अस्मत का सौदा करने विवश हो जाती है, मगर दूसरे ही क्षण उसकी अस्मिता जाग जाती है, और वह बच्चों का पेट किसी तरह कन्द-मूल से भरती है। बाढ़ के बाद गांव वाले दूसरी जगह विस्थापित होना चाहते हैं मगर राधा की अपील से वे रुक जाते हैं। इस तरह कठोर श्रम करते राधा अपने दोनों बच्चों को बड़ा करती है।

राधा का छोटा बेटा बिरजू विद्रोही है। वह अन्याय को सहन नहीं कर पाता इसलिए लाला के दुष्कर्मो से बार-बार उसका टकराव होता है, लेकिन हर बार ‘लोक मर्यादा’ के निर्वहन के तहत उसे रोक दिया जाता है। वह चोर के माल को लूटना चोरी नहीं मानता। अवश्य उसके चरित्र में थोड़ा नटखटपन भी है; वह लाला की बेटी से छेड़छाड़ करता है मगर इसमें उसकी भी भागीदारी है।बिरजू अपनी माँ से बहुत प्रेम करता है। वह बचपन से अपनी मॉं के दुःखों और संघर्ष को देखता रहा है, इसलिए लाला के माल की चोरी करके मॉं के लिए कंगन लाता है। स्वाभविक है इसकी नियति लाला तक पहुँचने में होनी थी। इस कंगन को लाला की बेटी पहन लेती है, जिसे बिरजू छीनने की कोशिश करता है। इस उपक्रम में उसपर छेड़छाड़ का आरोप लगाकर लाला के गुंडों द्वारा उसकी हत्या का प्रयास किया जाता है। राधा अपने बेटे की जान बचाने के लिए अपना जीवन दांव में लगा देती है। अंततः बिरजू गांव छोड़कर डाकू बन जाता है। बिरजू के गाँव छोड़ने और राधा द्वारा उसे रोकने का दृश्य कारुणिक है। इधर राधा का उसकी याद में हाल बेहाल रहता है।

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फिल्म के क्लाइमैक्स में सुखीलाला के बेटी का विवाह होता है जिसे बिरजू उठा ले जाने की धमकी दिया रहता है। लाला राधा के पास गिड़गिड़ाता है। राधा उसे आश्वासन देती है कि वह ‘गांव के इज़्ज़त’ की रक्षा करेगी। विवाह के दिन बिरजू अपने आदमियों के साथ गांव आता है। राधा उसे समझाती है, मिन्नतें मांगती है, मगर वह नहीं मानता। वह लाला के यहां हमला कर उसकी हत्या कर देता है, और उसके बेटी को उठाकर ले जाने लगता है। राधा उसे रोकती है, गोली मार देने की धमकी देती है। बिरजू कहता है तुम मेरी माँ हो मुझे नहीं मार सकती; और वह जाने लगता है। राधा उसे गोली मार देती है। मगर दूसरे ही क्षण उसका मातृत्व उमड़ पड़ता है। बिरजू भी उसके आँचल में गिर जाता है। उसके हाथ में माँ के कंगन रहते हैं, जो उसने लाला से छीना था।इस तरह फिल्म समाप्त हो जाती है।

इस फिल्म की केन्द्रीयता राधा (नरगिस) के चरित्र में है। एक माँ की अपनी सन्तानो के प्रति प्रेम और ज़िम्मेदारी का अहसास किस हद तक हो सकती है, राधा के चरित्र में देखा जा सकता है। एक भारतीय नारी (और किसी भी अन्य देश की क्यों नहीं) का चित्रण कला में मुख्यतः ‘भोग्या’ के रूप में होता रहा, उसकी सुंदरता उसकी ‘नाज़ुकता’ से जोड़ा जाता रहा, मगर इस तरह की फिल्मों ने इसके संघर्ष पक्ष को उभारा और सौंदर्य को श्रम से जोड़ा। यह नयी दृष्टि थी।

महबूब खान की फिल्म 'मदर इंडिया' हर किसी को क्यों देखनी चाहिए!

कहा जाता है कि महबूब ख़ान ने इस फिल्म का शीर्षक ‘मदर इंडिया’ कैथरीन मेयो की इसी नाम से प्रकाशित पुस्तक(1927) के साम्य पर रखा था। यह भी कि मेयो की पुस्तक में तत्कालीन भारतीय नारी की ‘गुलामी’ का चित्रण किया गया है, और समाज में उनकी ‘निम्न स्थिति’ को रेखांकित किया गया है, जिसका उस समय गांधीजी सहित अन्य कई प्रबुद्ध जनो ने प्रतिवाद किया था, और कई लेख लिखे गए थे। अपनी पाठकीय सीमा के कारण हम उक्त पुस्तक का अध्ययन नहीं कर पाए हैं, मगर आलोचक कँवल भारती (जिन्होंने इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद किया है) के अनुसार इसमें तत्कालीन भारतीय स्त्री का यथार्थ है। उन्होंने कुरीति में जकड़े तत्कालीन समाज के विरोधाभास की तरफ संकेत किया है है जहां स्त्री सिद्धांत में तो ‘देवी’ थी मगर व्यवहार में लगभग ‘दासी’ थी। हमने आलेख के प्रारम्भ में इस बात का जिक्र किया है और यह हकीकत है कि समाज में स्त्री की स्थिति समाज साक्षेप और वर्ग साक्षेप रही है, मगर पितृसत्ता प्रकट या महीन रूप में हर जगह रही है।

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आज स्थिति में बहुत कुछ बदलाव हुआ है; आज स्त्री बहुत हद तक अपने अधिकार और अस्मिता के प्रति जागरूक है, और जाहिर है ऐसा करते हुए उसे अपने कर्तव्य का भी बोध है। दरअसल मातृत्व, प्रेम, करुणा मनुष्य के नैसर्गिक गुण हैं, उसकी मनुष्यता की पहचान हैं, और यह फिल्म हमे एक स्त्री के माध्यम से यह दिखाती है।


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