विनोद कुमार राज ‘विद्रोही’ की 3 कविता: भेड़िए, सवाल और मेरी कविताएं

विनोद कुमार राज ‘विद्रोही’ की 3 कविता: भेड़िए, सवाल और मेरी कविताएं

भेड़िए

भेड़िए-
तुम फिर आना
बार-बार आना
दबोच कर ले जाना
यहां का नूर
यहां की महक
यहां की नमीं
यहां की जन्नत
पेड़, पहाड़, जंगल, झरना
नदी, नाला, पनघट सब ले जाना
पसंद की पनिहारनियों को भी ले जाना।

भेड़िए-
तुम फिर आना
ले जाना दबोच कर
यहां के लोकगीत
यहां के लोकनृत्य
यहां की संपदा, खान-खनिज
धर्म, वेद, पुराण, शास्त्र, सब ले जाना
लोगों का मन, मस्तिष्क, ईमान सब ले जाना

भेड़िए-
तुम फिर आना
अबकी बार
बदल कर आना अपना रंग
अपना भेष
गिरगिट की माफिक
आकर बैठ जाना चुपचाप
अचानक अपनी जीभ निकालना
बहुत लंबी
और निगल लेना हम सबका कलेजा…

लेकिन याद रखना
हम भी जानते हैं
तुम्हारी जीभ को अपनी मुट्ठी में जकड़ना…।

विनोद कुमार राज ‘विद्रोही’ की 3 कविता: भेड़िए, सवाल और मेरी कविताएं

सवाल

तुम्हारी प्रतिबद्धता है कि
करो तुम सवाल
सवाल-दर-सवाल
वैचारिकता की ज्वालामुखी को
होने दो प्रस्फुटित
थोड़ा और बिखरने दो
थोड़ा और फैलने दो
लावा को
पहुंच ही जाने दो
संसद की सीढ़ियों तक

बांध कर ले जाओ
सवालों की पोटली को
संसद तक
खोलकर बिखेर दो
संसद के आसपास
तैरने दो
सवालों को
हवाओं में
जमीन से आसमान तक
घुसने दो
हवाओं को
सब के कानों में
सरसराहट के साथ
जीभ से टकराने दो किरकिरी बन कर
आंखों में घुस जाने दो धूल का कण बनकर
छटपटाने दो
असहनीय दर्द से
कब तक बनेंगे गूंगा-बहरा-अंधा वो
होगा कभी जरूर विस्फोट
उनके मस्तिष्क के किसी कोने में
फिर तुम्हें जवाब जरूर मिलेगा।

विनोद कुमार राज ‘विद्रोही’ की 3 कविता: भेड़िए, सवाल और मेरी कविताएं

मेरी कविताएं

स्याह रात के सन्नाटे में
जब सो रहे होते हो तुम
चारों ओर कायम रहता है जब अंधेरा
तब बुझती हुई राख में
दबी हुई चिंगारी की मानिंद
चमकती है कविता
मन-मस्तिष्क के किसी कोने में
जैसे अंधेरे में चमकने लगी थी उस बलत्कृत बेटी की लाश
जिसे जलाया था चुपके-चुपके पुलिस वालों ने
जैसे जलाकर मार दिया था उस डॉक्टर बहना को
जालिमों ने आधी रात को
उजाले से डरकर
हां,
इसी तरह चमकती है मेरी कविता
फिर लिखता हूं कागज के पन्नों पर
कलम की नोक से
संवेदनाएं
दर्द
आक्रोश
इंकलाब
एक नई क्रांति…।

चाहता हूं
पहुंचे मेरी कविताएं
उस झोपड़ी तक
जहां कई दिनों से भूख से बिलबिला रहे हैं बच्चे
उस हाजत तक
जहां पुलिस की पिटाई से मारा गया हो बेगुनाह
उस फाइल तक
जहां छुप कर बैठा है कई घोटालों का जिंदा सबूत…।

चाहता हूं
पहुंचे मेरी कविताएं
दबे, कुचले, वंचित, पीड़ित लोगों के बीच
बेबस परिंदों के घोसलों के बीच
उस भीड़ के बीच
जहां एक बेबस इंसान जान की भीख मांग रहा है…।


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