आलोचना का लोकधर्म: आलोचना की लोकदृष्टि

आलोचना का लोकधर्म: आलोचना की लोकदृष्टि

हुआयामी व्यक्तित्व के धनी शाकिर अली कवि, आलोचक, एक्टिविस्ट कई रूपों में दिखाई देते हैं। लेकिन इन सब में मुझे उनका विद्यार्थी रूप सर्वाधिक महत्वपूर्ण लगता है। ज्ञान की भूख और किताबों से उनका प्रेम, उनको निकट से जानने वाले ही जान सकते हैं। ऐसे कई मौके मैं जानता हूँ जब उन्होंने एकमुश्त पचास से अधिक किताबें खरीदी। वे कब किसी दुर्लभ या अल्पज्ञात पुस्तक अथवा आलेख की फोटोकॉपी आपको अपने झोले से निकालकर देंगे, इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता।

जाहिर है पुस्तकों से उनका इतना प्रेम, अध्ययन के प्रति उनकी रुचि के कारण हैं। वे खूब पढ़ते हैं और दूसरों को पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। उम्र के इस पड़ाव तक जितना गद्य उन्होंने लिखा है, उनके अध्ययन का दशांश भी नहीं है। वे चर्चाओं और बहस में ही जो बातें कहते हैं उसी को लिखते चले जाएं तो काफी सामग्री हो जाएगी। यह सुखद है कि वे अब इस तरफ ध्यान दे रहे हैं और लिख रहे हैं। बहरहाल, ‘आलोचना का लोकधर्म’ से इसकी शुरुआत हो गई है।

‘आलोचना का लोकधर्म’ शाकिर जी की पहली आलोचना कृति है। अवश्य इसमें एक निश्चित योजना के तहत आलेख नहीं रखे गए हैं बल्कि अब तक के उनके लिखे सभी आलेखों को एक साथ पुस्तकाकार दिया गया है। ये आलेख 1975 से लेकर 2018 तक के हैं। साथ ही इसमें उनके द्वारा किए गए दो महत्वपूर्ण आलेखों का अनुवाद भी है। इसके अतिरिक्त परिशिष्ट में ‘पहल’ सात(1976) में प्रकाशित उनके आलेख ‘वर्ण से लेकर वर्ग तक की यात्रा का समाजशास्त्र’ पर हुए विवाद के पक्ष -विपक्ष में प्रकाशित रिपोर्टों और प्रस्तावों को प्रकाशित किया गया है, जिससे तत्कालीन समय के साहित्यिक राजनीति की कुछ झलक मिलती है।

ये आलेख,जैसा कि हमने ऊपर कहा है, भले किसी सुनिश्चित योजना के तहत न हो मगर इनमें एक तारतम्यता है जो पुस्तक के नाम से प्रकट हो जाता है, ‘आलोचना का लोकधर्म’। शाकिर जी के लिए आलोचना लोकधर्म है। स्वभावतः उनकी दृष्टि लोकधर्मी है। वे प्रतिबद्ध लेखक हैं, जो मानते हैं कि साहित्य समाज के बेहतरी के लिए प्रेरित कर सकता है, करता है।यों तो अमूमन हर साहित्य में समाज को बेहतर बनाने का भाव निहित होता है मगर वर्गीय समझ और दृष्टिकोण के अभाव में अधिकतर महज सद्कामना भर रह जाता है। शाकिर अली की आलोचना दृष्टि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद से पगी लोकतन्त्र, बहुलतावादी संस्कृति, भाषा की विविधता, श्रम की महत्ता का सम्मान करती है, और साहित्य में भी ऐसे लेखकों का पक्ष लेती है जिनका रचनाकर्म इनसे संपृक्त हैं।

इस पुस्तक में जिन कवियों के कविताओं की व्यवहारिक समीक्षा की गई है उनकी कविताओं की लोकधर्मिता पर सहमति-असहमति हो सकती है। युवा आलोचक उमाशंकर परमार ने एक-दो कवियों की लोकधर्मिता पर प्रश्न उठाया भी है। हमारी पाठकीय सीमा यह है कि समीक्षित सभी कवियों के कविताओं को सम्यक रूप से अभी तक नहीं पढ़ा गया है। बहरहाल, आलोचना में वाद-विवाद- संवाद होते रहे हैं, होते रहेंगे। यहाँ महत्वपूर्ण बात यह है शाकिर अली की आलोचना दृष्टि स्पष्ट है। पुस्तक में जिन कवियों की कविताओं/संग्रह पर लिखा गया है वे हैं- कमलेश्वर साहू, अग्निशेखर, त्रिलोक महावर, केशव तिवारी, मोहन डहेरिया, हरिओम राजोरिया, रूपेंद्र पटेल, संजीव बख्शी, सुधीर सक्सेना, माताचारण मिश्र , चिरंजीव दास । इनमें से अधिकांश की अपेक्षाकृत कम चर्चा हुई है। लोक जीवन से जुड़े इन कवियों के अलग-अलग रंग हैं, परिवेश हैं, शैलियां हैं। शाकिर जी इनके काव्यगत विशेषताओं के साथ-साथ व्यक्तित्व के कई अनछुए पहलुओं का भी विश्लेषण करते जाते हैं।

गद्य आलोचना में कुछ सैद्धांतिक निबंध हैं तो कुछ पुस्तक समीक्षा और व्यक्ति चित्र। चाहे काव्य आलोचना हो या गद्य आलोचना शाकिर अली की पद्धति संस्मरणात्मक ढंग से शुरू होती है। वे पहले समीक्षित कवि/लेखक से सम्बंधित अपने संस्मरण सुनाते चलते हैं, जिससे दोनों के व्यक्तित्व के कई पहलू उजागर होते हैं। इसके बाद वे कथ्य में प्रवेश करते हैं। संकलित आलेख मुख्यतः मंडनात्मक हैं, विवादी स्वर कम हैं। एक जगह विजेंद्र जी के निबन्ध ‘सौंदर्यशास्त्र: भारतीय चित्त और कविता’ के विश्लेषण के संदर्भ में उन्होंने लिखा है, “भारतीय चित्त में निर्माण में उर्दू भाषा एवं साहित्य की महती भूमिका का जिक्र करना भूल जाते हैं।” बहुधा यह देखा गया है कि जो उर्दू साहित्य को व्यापक हिंदी साहित्य का अंग समझते हैं वे भी हिंदी साहित्य का इतिहास अथवा साहित्य की चेतना के निर्माण और साहित्य की प्रवृत्तियों में उसका उल्लेख नहीं करतें। बच्चन सिंह जी ने ‘हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास’ में कुछ हद तक इसे किया है। इस कार्य को और आगे बढ़ाने की आवश्यकता है।

असहमति का एक दूसरा स्वर ‘युवा कविता: वाद-विवाद-सम्वाद’ में है, जिसमें उन्होंने आलोचक विजय कुमार की ज्ञानोदय में प्रकाशित टिप्पणी ‘कवित्त ही कवित्त’ के कपितय मान्यताओं से असहमति जताई है। अपने आलेख में विजय ने नई पीढ़ी के कवियों की ‘मौलिकता’ पर प्रश्न उठाये थे जिनका शाकिर ने प्रतिवाद किया है और दिखाया है कि नए कवियों में केवल ‘नकल’ नहीं है, कइयों ने अपनी अलग राह बनाई है।

शाकिर के शुरुआती निबन्ध महत्वपूर्ण है, जिसमें उन्होंने ‘आधुनिक भारत और नेहरू’, ‘वर्ण से लेकर वर्ग तक की यात्रा का समाजशास्त्र’, ‘हरबर्ट मारक्यूज निषेधात्मक द्वंद्ववाद का दर्शन’ ‘वर्तमान सांस्कृतिक परिदृश्य और हमारे काम’ निबन्ध लिखे हैं या कॉडवेल की पुस्तक ‘इल्यूजन एंड रियलटी’ के प्रथम अध्याय ‘बर्थ ऑफ पोएट्री’ का ‘कविता का जन्म’ शीर्षक से संक्षिप्त अनुवाद किया है।’वर्ण से लेकर वर्ग तक की यात्रा का समाजशास्त्र’ में उन्होंने मार्क्सवादी दृष्टि से भारतीय इतिहास में सामन्तवाद की पूंजीवाद तक की यात्रा और उसमें जाति की भूमिका को संक्षिप्त में रेखाँकित किया है। इसमें उचित ही सामंती अवशेष के खात्मे को जाति उन्मूलन के बिना संभव न हो सकने पर बल दिया गया है। एक समय यह सोचा जाता रहा कि पूंजीवाद के प्रसार से जाति का वर्ग में रूपांतरण होता चला जाएगा मगर यह नहीं हो सका है और वह नए-नए चेहरों में प्रकट हो रहा है। इसके लिए द्वंद्वात्मक अध्ययन के साथ जाति उन्मूलन की नई रणनीति की तलाश की आवश्यकता है।

‘आधुनिक भारत और नेहरू’ में आधुनिक भारत के निर्माण में नेहरू के योगदान को रेखांकित करते हुए ‘राष्ट्रभाषा की महत्वपूर्ण भूमिका को समझने’ में उनकी भूल को भी दिखाया गया है। ‘हरबर्ट मारक्यूज निषेधात्मक द्वंद्ववाद का दर्शन’ में मारक्यूज के निषेधात्मक द्वंद्ववाद का खंडन किया गया है। यह दर्शन नव वामपंथ ने नाम पर कला चिंतन में व्यतिवादी निराशा का ही राजनैतिक-दार्शनिकीकरण है, जो मार्क्स -पूर्व की मृत बुर्जुआ विचारधाराओं को ही ढोता है। ‘रंगीन साहित्य बनाम स्वस्थ साहित्य’ की समस्या आज भी बनी हुई है। रंगीन साहित्य का स्थान आज बहुत हद तक दृश्य चैनलों ने ले लिया है, मगर काम वही है। रंगीन साहित्य के लिए वह नशीली दवाओं की तरह आदी हो जाता है। इस प्रकार उसे वर्तमान आर्थिक, राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक तनावों से मुक्ति पाने का रास्ता सरलता से उपलब्ध रंगीन व्यवसायिक साहित्य उसे मनोरंजन व समय काटने के साधन के रूप में स्वीकार्य हो जाता है।

‘डॉ. प्रमोद वर्मा की स्मृति में’ में प्रमोद का आत्मीय स्मरण है साथ ही उनके रचनाकर्म के कुछ पहलुओं का जिक्र है। इसी तरह ‘परंपरा की अनवरत खोज का नाम है : विष्णु चन्द्र शर्मा’ में विष्णु के लोकधर्मी दृष्टि से किए गए निराला, मुक्तिबोध, ग़ालिब, रवीन्द्रनाथ आदि के विश्लेषण का उल्लेख है। लोकधर्मी कवि-आलोचक विजेंद्र के निबंध ‘सौंदर्यशास्त्र : भारतीय चित्त और कविता’ के बहाने सौंदर्य के वस्तुगत आधार तथा हिंदी साहित्य के इतिहास में लोकवादी सौंदर्य दृष्टि की विजेंद्र की पड़ताल की विवेचना है। ध्यातव्य है की विजेंद्र सौंदर्यशास्त्र पर लगातार लिखते रहे हैं।मार्क्सवादी आलोचकों ने सौंदर्य के आत्मगत आधार के बरक्स वस्तुगत आधार की प्रतिष्ठा की है। सौंदर्य दृष्टि दोनों के द्वंद्वात्मकता में है। विजेंद्र इस चिंतन को आगे बढ़ाते हैं।

‘ठाकुर का कुआँ: प्रेमचन्द, एक विमर्श’ में प्रेमचन्द की चर्चित कहानी ‘ठाकुर का कुआँ’ के विश्लेषण द्वारा प्रेमचन्द की दलितों के प्रति सहानुभूति और तत्कालीन सामाजिक संरचना में उनकी निम्न स्थिति को दिखाया गया है। प्रेमचंद ने इस कहानी में स्पष्ट रूप से सवर्णवाद और सामंती सामाजिक व्यवस्था की आलोचना की है। उनकी ‘कफ़न’, ‘पूस की रात’, आदि कहानियों से इसे जोड़कर देखने से स्थिति और भी स्पष्ट हो जाती है। परिस्थितियों से विद्रोह के अलावा परिस्थियों के भयावहता का चित्रण का भी अपना महत्व होता है। शाकिर ने उचित ही कहा है कि कहानी में हरदम ‘हीरो’ की तलाश उचित नहीं है।

‘भारत में अंग्रेजी राज (प.सुंदरलाल) का महत्त्व’ आलेख महत्वपूर्ण है। 1929 में प्रकाशित यह पुस्तक भारत में अंग्रेजी राज की ‘प्रगतिशीलता’ के भ्रम को तोड़ती है। यह पुस्तक अंग्रेजों द्वारा भारतीय अर्थव्यवस्था को नष्ट करने तथा समावेशी संस्कृति को भेदकर ‘फुट डालो और शासन करो’ की नीति के तहत वैमनस्यपूर्ण इतिहासबोध पैदा करने के षड्यंत्र का पर्दाफाश करती है। डॉ. रामविलास शर्मा ने भी कई जगह इस पुस्तक का जिक्र किया है। शाकिर अली ने उचित ही इस पुस्तक का मण्डन किया है।

‘डॉ. राजेश्वर सक्सेना: व्यक्तित्व एवं रचनाकर्म’ में प्रसिद्ध आलोचक राजेश्वर सक्सेना के व्यक्तित्व और कृतित्व का मूल्यांकन है। डॉ. सक्सेना छत्तीसगढ़ क्षेत्र से समर्थ मार्क्सवादी आलोचक हैं। मार्क्सवाद की सैद्धांतिकी और उत्तर आधुनिकता पर उन्होंने महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके कार्यों को नयी पीढ़ी तक पहुंचाने के लिए उनकी पुस्तकों की उपलब्धता आसान बनाने तथा उनके योगदान का मूल्यांकन करने की आवश्यकता है। शाकिर अपने ढंग से यह कार्य कर रहे हैं तथा आगे उन पर उनकी पुस्तक लिखने की योजना है। प्रस्तुत निबन्ध में संक्षिप्त रूप में ही बातें आ पायी हैं।

डॉ. रामविलास शर्मा पर अपने संक्षिप्त लेख में शाकिर ने डॉ. शर्मा के लेखन के बहुत से आयामों को छू लिया है। डॉ. शर्मा ने मार्क्सवादी पद्धति से भारतीय साहित्य और परम्परा का बृहत मूल्यांकन किया है। वे ऋग्वेद से निराला तक भारतीय साहित्य के श्रमवादी परंपरा को भी रेखाँकित करते हैं। इस क्रम में वे भाववादी प्रवृत्तियों का तीव्रता से खण्डन करते हैं। डॉ. शर्मा का कार्य बहुत विस्तृत है, यह निबन्ध केवल परिचयात्मक है। शाकिर अली डॉ. शर्मा की आलोचना के कपितय पहलुओं से असहमत रहे हैं, जिसका जिक्र वे बातचीत में करते रहे हैं, हालांकि यहां उनका जिक्र नहीं है। वे प्रश्न लगभग वही हैं जो कई आलोचकों द्वारा उठाये जाते रहे हैं। मसलन हिंदी-उर्दू के प्रश्न, मुक्तिबोध का मूल्यांकन, परम्परा का मूल्यांकन, नवजागरण आदि। महत्वपूर्ण यह है कि शाकिर समग्र निषेधवाद में नही जाते। उम्मीद है आगे वे इस पर और काम करेंगे।

‘ओम प्रकाश वाल्मीकि का चले जाना’ में दलित कवि-आलोचक वाल्मीकि का आत्मीय स्मरण है। दलित साहित्य की प्रतिष्ठा में वाल्मीकि का महत्वपूर्ण स्थान है। उनकी आत्मकथा ‘जूठन’ काफी लोकप्रिय हुई है। शाकिर जी की शब्दो में- “जूठन’ दलित चेतना के निर्माण का हिंदी साहित्य में एक दहकता हुआ दस्तावेज है।” आलेख में शाकिर ने उनकी कविताओं और कुछ कहानियों का विश्लेषण किया है।

‘यह मेरा लोक अनुरागी समय और हबीब तनवीर’ आलेख तनवीर के महत्व को रेखांकित करता है। भारतीय नाट्य परंपरागत में हबीब तनवीर का विशिष्ट स्थान है। उन्होंने रंगमंच में लोक नाट्य और लोक संस्कृति का सफल प्रयोग कर एक प्रतिमान स्थापित किया। शाकिर ने नाट्य वर्कशाप में उनके साथ गुजारे समय और उनके नाट्य कौशल का रोचक वर्णन किया है।इस क्रम में वे अपने बचपन के दिनों के संस्मरण में तत्कालीन समावेशी लोक परम्परा का वर्णन किया है।

‘यात्रा से पहले यात्रा’ की समीक्षा में प्रभाकर चौबे जी की रचनाधर्मिता और व्यक्तित्व का चित्रण भी है। इस पुस्तक में लोकसंस्कृति और लोकाचार का जीवंत चित्रण है। परिवेश बुन्देलखण्ड का है मगर इसमें सभी क्षेत्र के पाठकों को अपनी संस्कृति से जोड़ देने की क्षमता है।

सुधीर सक्सेना पर दो आलेख हैं जिनमें उनके व्यक्तिव और कृतित्व का मूल्यांकन है। सुधीर चर्चित पत्रकार और कवि हैं। साथ ही उनमें यायावरी प्रवृत्ति भी है जिसके कारण वे देश-विदेश की यात्रा करते रहे हैं। इन यात्राओं ने उनकी कविता को समृद्ध किया है और उसमें एक वैश्विक परिदृश्य उपस्थित किया है। लेखक का सुधीर से लंबा संपर्क और आत्मीयता रही है, जिसकी बानगी इस आलेख में है।

अनुवाद खण्ड में दो महत्वपूर्ण आलेख तथा सुकान्त भट्टाचार्य की एक बंगाली कविता ‘सिगरेट’ का हिंदी अनुवाद है। प्रसंगवश इधर शाकिर बंगला कविताओं का लगातार अनुवाद कर रहे हैं जो ‘दुनिया इन दिनों’ मासिक पत्रिका में प्रकाशित हो रही हैं। पहला अनुवाद प्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक क्रिस्टोफर कॉडवेल की पुस्तक ‘इल्यूजन एंड रियलटी’ के प्रथम अध्याय ‘बर्थ ऑफ पोइट्री’ का ‘कविता का जन्म’ शीर्षक से संक्षिप्त अनुवाद है। कॉडवेल की यह पुस्तक आलोचना जगत में काफी चर्चित रही है और कविता के यथार्थवादी समझ के लिए जरूरी समझी जाती रही है। शाकिर की पूरी पुस्तक का अनुवाद करने की योजना रही है, जिसे वे अभी तक पूरा नहीं कर पाये हैं। उम्मीद है आगे वे इस काम को पूरा करेंगे। हालांकि भगवान सिंह ने इस पुस्तक का अनुवाद किया है।

दूसरा अनुवाद ‘भारतीय मुसलमान: सार्थक भूमिका की तलाश’ ए. रहमान के अंग्रेजी आलेख का अनुवाद है। आलेख में रहमान ने भारतीय मुसलमानों के वैश्विक संदर्भ में वैचारिक विकास और अंतर्विरोध, संस्कृति और सभ्यता में उनकी देन तथा वर्तमान की चुनौतियों के लिए यथार्थवादी दृष्टि के विकास पर बल दिया है।

पुस्तक में ‘आशीर्वचन’ और ‘भूमिका’ के रूप में दो महत्वपूर्ण आलेख हैं। ‘आशीर्वचन’ में राजेश्वर सक्सेना ने अपने और शाकिर के वैचारिक यात्रा का उल्लेख किया है तथा लोहियावाद के ‘ज्ञान के अराजकतावादी दृष्टिकोण’ का खंडन किया है। आगे उन्होंने शाकिर के कुछ आलेखों का विश्लेषण किया है। ‘भूमिका’ में युवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार ने समग्र आलेखों का लोकवादी दृष्टि से विवेचन किया है और इसे उचित ही ‘अस्मिता में संदर्भ में संतुलित लोकधर्म’ कहा है।

इस तरह ‘आलोचना का लोकधर्म’ शाकिर आलोचक रूप का प्रकटीकरण है। हम कह आये हैं कि यह उनके अलोचनाकर्म का एक पहलू भर है। उनके अध्ययन की सीमा काफी विस्तृत है जिसे अभी लिखा जाना है। उन्होंने शुरुआत कर दी है उम्मीद कर सकते हैं कि आगे वे हिंदी के लोकधर्मी आलोचना और चिंतन को समृद्ध करेंगे।

कृति- आलोचना का लोकधर्म
लेखक- शाकिर अली
प्रकाशन- उद्भावना, गाजियाबाद

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