सिविल सेवा परीक्षा और भारतीय भाषाएं

सिविल सेवा परीक्षा और भारतीय भाषाएं

संयोग से पूरे देश के लिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति और नौकरशाही की सर्वोच्च सेवाओं में भर्ती के लिए संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्षा के परिणाम लगभग साथ-साथ आए हैं। नीति नियंता और सरकार इन परिणामों के आईने में पूरी परीक्षा प्रणाली और विशेष रुप से शिक्षा और भाषा की हकीकत देख सकते हैं। कुल घोषित सफल 829 उम्मीदवारों में पिछले कुछ वर्षों की तरह ही सभी भारतीय भाषाओं के मिलाकर तीन फीसद से भी कम है। यानी 97 प्रतिशत उस अंग्रेजी माध्यम से सफल हुए हैं जिन्हें ठीक से बोलने वालों की संख्या एक फीसद से भी कम है। इन परिणामों की गूंज पूरे देश में महीनों सुनाई देती रहती है। इससे अंदाजा लगा सकते हैं कि जो अंग्रेजी के स्कूल, विश्वविद्यालय चंद शहरों और महानगरों तक ही सीमित थे वे अब गांव-गांव क्यों फैल रहे हैं? पहले पांच सौ में केवल तीन हिंदी माध्यम के हैं। यानी आईएएस, आईपीएस आईएफएस में इस बार कोई भारतीय भाषा का नहीं है। पिछले वर्ष भी ऐसा ही हुआ था। क्या ये चुने हुए अफसर अंग्रेजी जनता से बात संवाद या शासन करेंगे? गौर कीजिए अब दलित पिछड़े वर्ग से भी सभी अंग्रेजी माध्यम से ही आ रहे हैं और ज्यादातर पुब्लिक स्कूल में ही सवर्णों की तरह पढ़े हुए। और लगभग शतप्रतिशत कई कई साल की कोचिंग करने के बाद। हम नयी प्राकृतिक नौजवान प्रतिभा चुन रहें है या बाशी रटंत के उम्मीदवार?

नई शिक्षा नीति में पांचवी तक मात्र भाषाओं और संभव हुआ तो आठवीं और उससे आगे भी भारतीय भाषाओं मैं पढ़ने पढ़ाने की बात कहीं गई है। अब देखना यह होगा आने वाले वर्षों में संघ लोक सेवा आयोग का बैरोमीटर क्या बताता है और सरकार इन सभी सेवाओं में भारतीय भाषाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए क्या ठोस कदम उठाती है? कोठारी समिति की सिफारिशों पर वर्ष 1979 से भारतीय भाषाओं में परीक्षा देने की छूट दी गई थी। शुरू के दो दशक तक तो भारतीय भाषाओं के लगभग 15 फीसद उम्मीदवार चुने जाते रहे हैं लेकिन पिछले कुछ वर्षों में बहुत निराशाजनक स्थिति है। मुश्किल से 3-4 फीसद। संघ लोक सेवा आयोग के पिछले कुछ वर्षों के परिणाम एक और बीमारी की तरफ इशारा करते हैं।

हरियाणा के रहने वाले 29 वर्षीय प्रदीप सिंह को इस बार परीक्षा में सर्वोच्च स्थान पाने का सौभाग्य मिला है। ग्रामीण पृष्ठभूमि से आए और वही के एक इंजीनियरिंग कॉलेज से पढ़ाई करने के बाद यह उपलब्धि और भी बड़ी है। यानी प्रतिभा के केंद्र आईआईटी, आईआईएम या दिल्ली, जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय ही नहीं है। लेकिन स्टील फ्रेम कही जाने वाली नौकरशाही की चयन प्रणाली पर कुछ प्रश्न पिछले दिनों बार-बार उठ रहे हैं। इस परीक्षा में प्रवेश की उम्र 21 वर्ष है और अधिकतम 37 वर्ष। ब्रिटिश विरासत की आईसीएस परीक्षा से लेकर आजाद भारत में आईएएस परीक्षा तक उद्देश्य यह रहा है कि नौजवानों को कम उम्र में भर्ती किया जाए। ब्रिटिश काल में यह अधिकतम आयु 21 वर्ष थी जिसे आजाद भारत में बढ़ाते बढ़ाते अब 37 वर्ष कर दिया गया है। जिस नौकरशाही में 30 वर्ष की औसत आयु की भर्तियां हो रही हो उसकी क्षमता पर संदेह स्वाभाविक है। रिटायरमेंट की उम्र 60 वर्ष स्थिर मानते हुए भी इस साल का टॉपर सरकार के सेक्रेटरी और अन्य उच्चतम पद पर नहीं पहुंच पाएंगे। हमारे कमजोर वर्ग के लोग एक बड़ी उम्र में ज्वाइन करने के कारण सर्वोच्च पदों पर पहुंचने में इसीलिए पीछे रह जाते हैं।

इसी से जुड़ा हुआ प्रश्न है कि प्रदीप सिंह पहले दो प्रयासों में प्रारंभिक परीक्षा में ही असफल रहे थे। पहले टॉप दस में से अधिकांश का यही रिकॉर्ड रहा है। यहां असफलता पर प्रश्न नहीं किया जा रहा लेकिन हमारी परीक्षा प्रणाली में विशेषकर पिछले एक दशक में कुछ ऐसे संशोधन हुए हैं जिससे परीक्षा प्रणाली शंका के घेरे में आ गई है। कोई भी मेधावी छात्र जिसमें इस परीक्षा को टॉप करने के बीज मौजूद हैं वह प्रारंभिक परीक्षा पास न कर पाए इस पर यकीन नहीं होता। संघ लोक सेवा आयोग अपने परिणामों पर खुद ही इस निष्कर्ष पर आसानी से पहुंच सकते हैं कि प्रारंभिक परीक्षा में जल्दबाजी में किए हाल के कुछ बदलाव ठीक नहीं है। यदि मुख्य परीक्षा में एक वैकल्पिक विषय की अनिवार्यता है तो कोठारी समिति की अनुशंसाओं के अनुरूप उसका कुछ अंश प्रारंभिक परीक्षाओं में भी शामिल होना चाहिए जैसा वर्ष 1979 से 2010 तक था। वरना प्रारंभिक परीक्षा एक लॉटरी के जुए की तरह बनती जाएगी और सर्वश्रेस्थ प्रतिभा चुनने की सारी कवायद की प्रतिष्ठा भी गिरेगी।

संघ लोक सेवा आयोग की बहुत अच्छी विशेषता है कि हर 10 साल के बाद पूरी परीक्षा प्रणाली को रिव्यू किया जाता है। वर्ष 1979 में शुरू हुई प्रणाली को वर्ष 1988 में सतीश चंद्र कमेटी ने रिव्यू किया और उसके 10 वर्ष बाद साल 2000 में वाईपी अलग कमेटी ने। उसके बाद होता कमेटी, निगवेकर कमेटी और खन्ना कमेटी ने छुटपुट सुझाव दिए हैं जिनसे परीक्षा प्रणाली सुधारने के बजाए उसके खिलाफ और आवाजें उठी हैं। वर्ष 2014 में अंग्रेजी, अनुवाद की समस्या आदि के खिलाफ देशभर के लाखों बच्चे सड़कों पर उतर आए थे। परीक्षा भी स्थगित करनी पड़ी थी लेकिन मुकम्मल रूप से उन कमियों को अभी भी दूर नहीं किया गया। अफसोस की बात है कि भारतीय भाषा हिंदी में सहज अनुवाद तक हम नहीं करा पा रहे। अनुवादकों की भरती प्रक्रिया भी शक के घेरे में है। अनुवादक के लिए दोनों भाषाओं के साथ विषय का ज्ञान भी उतना ही जरुरी है। इसलिए मानविकी, समाज विज्ञान सहित विज्ञान, इंजीनियरिंग के ग्रेजुएट भी अनुवाद की पदों के लिए भरती किए जाने चाहिए और तुरंत। इस देश में अनुवाद करना भी रॉकेट या हाइड्रोजन बम बनाने की तरह मुस्किल लग रहा है। सिविल सेवा परीक्षा में सुधर के लिए दो वर्ष पहले एक और बासवान कमेटी का नाम तो सुना है लेकिन पता नहीं उनकी सिफारिशें कब आएंगी?

इस वर्ष की परीक्षा के लिए 900 रिक्तियों की घोषणा की गई थी लेकिन परिणाम सिर्फ 829 ही क्यों घोषित किए गए हैं? आयोग और उम्मीदवार दोनों के लिए ही इतनी कठिन और श्रम साध्य प्रक्रिया के बाद तो किसी भी आकस्मिकता को तैयार रहने के लिए और 10 प्रतिशत ज्यादा सफल उम्मीदवार घोषित किए जाने चाहिए थे। आयु सीमा के अलावा सरकार के पास एक और वाजिब सुझाव वर्षों से लटका पड़ा है कि देश के प्रतिष्ठित दर्जनों सरकारी उपक्रमों, संस्थानों के लिए इन्हीं परिणामों की प्रतीक्षा सूची से यदि भर्ती की जाए तो क्या हर्ज है! आयोग और सरकार सबको पता है कि लाखों उम्मीदवार अपनी तैयारी के लिए वर्षों तक किन आर्थिक, सामाजिक यंत्रनाओं से गुजरते हैं। यह आयोग की प्रतिष्ठा के अनुकूल होगा।

वक्त का तकाजा है कि शिक्षा आयोग की तरह यूपीएससी और स्टाफ सिलेक्शन कमीशन आदि के लिए भी एक आयोग तुरंत गठित हो जिसकी सिफारिशें राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुरूप और पूरक हो। भारतीय वन सेवा, मेडिकल, इंजिनियर, आर्थिक, रक्षा सेवा में भी भारतीय भाषाएं अंग्रेजी के साथ शामिल हों।

जंग खाई नौकरशाही में सुधारों को और स्थगित नहीं किया जा सकता। विभिन्न प्रशासनिक आयोग भी उम्र कम करने, भर्ती, प्रशिक्षण और सेवाकाल में उनकी क्षमता को बढ़ाने के लिए कई सिफारिशें दे चुके हैं। याद रखिए, इसी मजबूत नौकरशाही के बूते चंद अंग्रेज 200 वर्ष तक बहुत आराम से राज करते रहे। कोरोना कॉल में एक मजबूत, ईमानदार नौकरशाही की जरूरत और महसूस की गई है और यही जरूरत आत्मनिर्भर भारत बनाने के लिए कारगर सिद्ध होगी। शिक्षा और नौकरी दोनों में सरकार की नीतियां प्रतिबिंबित होनी चाहिए।

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