सामंतवाद ने ग्रामीण लोकजीवन को अभी हाल तक इस कदर जकड़ा था कि छोटे-छोटे ज़मीदार ही वहां के ‘भाग्य-विधाता’ हुआ करते थे। उनके क्षेत्र की तमाम गतिविधियां जैसे उनकी मर्जी से चलती थीं। आम जन का कदम-कदम पर अपमान सामान्य बात थी। उस पर भी वे ‘प्रजा हितैषी’ होने का दम भरते थे। दूसरी तरफ...