भूख का इतिहास
चलो-
शिनाख्त करते हैं
भूख को
कैसा होता है उसका रूप
कैसा होता है उसका रंग
कैसी होती है उसकी महक
कैसी होती है उसकी प्रतिबद्धता
कैसी होती है उसकी वैचारिकता
क्या वह दिखता है पिज्जा-बर्गर की तरह
क्या वह दिखता है माड़-भात की तरह
क्या वह दिखता है रोटी-साग की तरह
कहां रहता है वह
क्या भिखारियों के कटोरे में
क्या झोपड़ियों के कोने में
क्या हवेलियों के बड़े से किचन में
चलो-
लिखते हैं इतिहास
भूख का
देखना कोई छूटे नहीं
भूख से मरने वाले लोगों के नाम
उनकी दर्द भरी कहानियां
रोटी की जद्दोजहद
बेबसी, तड़प, कुर्बानियां
सच में लिखना उन्हीं की बातें
ऐसा नहीं कि खाए पिए अघाए लोगों का नाम ही हो
इस इतिहास में
जिसने कभी भूख देखा नहीं
जिसने कभी भूख भोगा नहीं
जिसने कभी भूख रोया नहीं
हां,
उन्हीं का महिमामंडन मत करना
मुट्ठी भर लोगों को ही महान मत बनाना
सच में लिखना
भूख से मरने वालों का इतिहास
लिखना-
आने वाली पीढ़ियों के लिए
सच का जिंदा दस्तावेज।
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आओ बचाएं
आओ गाएं उलगुलान के गीत
जनविद्रोह का शंखनाद करें
पहाड़ों-पठारों को बचा कर रखना है
नदी-नालों को बचा कर रखना है
जंगल-झरनों को बचा कर रखना है
परंपरा-संस्कृति को बचाकर रखना है
रखना है तीर-धनुष सुरक्षित-पजाकर
मांदर की थाप को बनाना है रणभेरी हुंकार
रखना है मस्तिष्क के किसी कोने में छुपा कर
डोम्बारी पहाड़ की यादें
बिरसा की कहानियां
खदेड़ना है हमें आज भी
उन अजगरों को
जो बैठे हैं यहां कुंडली मारकर
जो लील रहे हैं
निरिह जन को
उनके हक-अधिकार को
बनकर नया अंग्रेज
अब-
नहीं होंगे विस्थापित
झरिया की तरह
बोकारो की तरह
लातेहार-बालूमाथ की तरह
मैथन की तरह
बड़कागांव की तरह
टंडवा की तरह
नहीं खोना है हमें उनकी भीड़ में
चमकना है हमें उनकी भीड़ में
सितारों की मानिंद
बताना है उन्हें कि आता है हमे बचाना सबकुछ
हम सबका मैं अभी जिंदा है-तुम जाओ
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गांव की औरतें
गांव की उन औरतों को भी सलाम
जो ढेंकी कूटती हैं
जो ढेंकी से चावल निकालती हैं
जो जाता पिसती हैं
जो चना से दाल बनाती हैं
गांव की उन औरतों को भी सलाम
जो भीड़ में भी
दर्जनों घूरती आंखों के बीच भी
भूख से रोते हुए नवजात बच्चे को
कराती है स्तनपान
बिना किसी की परवाह किए
यह मानते हुए कि
यह दुनिया है बेशर्मों का
गांव की उन औरतों को भी सलाम
जो बांधकर बच्चे को
बेतरा में
ढोती हैं भट्टे में ईटें
पसीने से तरबतर होकर
लोलुप निगाहों से युद्ध करते हुए
खुद को बचाते हुए
गांव की उन औरतों को भी सलाम
जो कई किलोमीटर
पैदल चलकर
नेठो लेकर
डेगची लेकर
लाने जाती है पानी
बाल-बच्चों की प्यास बुझाने के लिए
गांव की उन औरतों को भी सलाम
जो रोपा रोपती हैं
जो लाठ-कुंडी चलाती हैं दिनभर
पटाती है पानी
करती है नम दर्जनों खेतों को
बड़ा करती है
खेतों में लगी फसलों को
अपने बच्चों की मानिंद
थकती नहीं फिर भी
गांव की उन औरतों को भी सलाम
जो मजदूरी कर परिवार का पेट पालती हैं
सड़कें बनाती हैं
छतें ढालती हैं
मसाले बनाती हैं
जो मशालें लेकर चलती हैं
जो झंडे-तख्तियां लेकर चलती हैं
जो इंकलाब का नारा लगाती हैं जो कई कई सालों बाद
खरीद पाती हैं अपनी एक साड़ी
लेकिन-
अपने बच्चों के लिए खरीदती हैं कई कपड़े
भेजती हैं उन्हें स्कूल
बुनती हैं सपने
बनाती हैं उन्हें अफसर
अपना पूरा जीवन समर्पित कर
हां, गांव की ऐसी ही
और भी मेहनतकश औरतों को सलाम…।
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