बॉलीवुड में मुसलमान करैक्टर को आमतौर पर विलेन या बदमाश दिखाने की परम्परा रही है। हालांकि, हॉलीवुड जो अपने आपको सबसे मैच्योर कहता है इस दकियानूसी से परे नहीं है। कई लोगों को लगता है कि वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और पेंटागन पर 9/11 हमले के बाद से ये शुरू होता है। लेकिन यह सोच सही नहीं है। दरअसल, मध्य पूर्व की संस्कृतियों और मुसलमानों को लेकर धार्मिक स्टीरियोटाइप उससे पहले भी सामने आते रहे थे। बॉलीवुड सिनेमा की तरह अरबों को अक्सर हॉलीवुड की फिल्मों और टेलीविजन शो में भी विलेन दिखाया जाता रहा। एक तरह से मुसलमानों को आतंकवादी बनाने में सिनेमा का सबसे बड़ा रोल रहा है। फिल्मों में इतनी बार उन्हें स्टीरियोटाइप रोल में फिट किया गया जिससे लगने लगा कि अक्सर मुसलमान आतंकवादी, दकियानूस और औरतों के प्रति वहशी होते हैं।
देखा जाए तो सिनेमा का भी अपनी एक अलग पॉलिटिक्स रही है, जो बहुत बारीकी से सिनेमाई दुनिया के नीचले तह में तैरती है। मसलन, अगर मुम्बई के गैंगस्टर पर फिल्म बन रही हो तो जाहिर उसका प्लॉट डोगरी जैसे इकाकों के आप-पास होगा। डोगरी आते ही मुसलमान भी आएंगे, जो वहां कि मुख्य आबादी का बड़ा हिस्सा हैं। लेकिन खेल कहां होगा ये समझने वाली बात है। वहां के किरदार दाढ़ी-टोपी में होगा, गले में तावीज पहनेगा, आँखों में सुरमा लगाएगा, गले में रुमाल होगा, जालीदार बनियान रहेगा और कुर्ता-पायजामा पहनेगा। या फिर बहुत ग़रीब है तो लुंगी पहनेगा।

लेकिन डोगरी और नालासुपारा जैसे झुग्गियों से ही सबसे अधिक अपराधी क्यों बने इसका मूल्यांकन कोई नहीं करेगा। जब बम्बई मुम्बई बन रहा था तब दो सामाज भी बन रहे थे। एक तरफ ऊंची-ऊंची इमारतें बन रही थीं तो दूसरी तरफ झुग्गियों में अभावों में जन्में लोग थे जो हथियार उठाकर अपनी महत्वकांक्षा को पूरा करना चाहते थे। इसके लिए बिल्डर और बिजनसमैन थे जो उनका इस्तेमाल अपने मफाद में कर रहे थे और वे लोग अपनी मफाद के लिए इस्तेमाल हो रहे थे। उसी दुनिया का नाम पड़ा- ‘अंडरवर्ल्ड’।
अब सवाल ये है कि अगर मुस्लिम इलाकों में आप जाएं तो कितने मुसलमान आपको फिल्मों में दिखाए गए हुलिए में दिखते हैं? जाहिर है नहीं के बराबर। जाने-अंजाने इस स्टीरियोटाइप हुलिए को वहीं फिल्मकार दिखाता है जो कभी मुसलमानों के साथ नहीं रहा है। उसकी कही-सुनाई एक दुनिया है जहां वह जीता है। फिर एक दिन उठता है उसी मानसिकता के साथ ऐसे किरदारों को गढ़ता है।
इसी तरह से हॉलीवुड में दिखाया जाता रहा है। हाँ, यहाँ और बात है कि अरबों और मुसलमानों के आँखों में सुरमा, टोपी, गले में रुमाल वगैरह नहीं होता है। वहाँ, विलेन या तो मगरिबी लिबास में होगा। और अगर लोकेशन मध्य पूर्व हुआ तो पारंपरिक लिबास में होगा। लेकिन वह होगा बदमाश और क्रूर ही। अक्सर लोगों को समझ नहीं आता है कि आखिर क्यों मुसलमानों की इस तरह से नस्लीय प्रोफाइलिंग की जाती है?
रेगिस्तानी लोग

जब कोका-कोला ने सुपर बाउल 2013 के दौरान एक एडवर्टाइजमेंट लॉन्च किया जिसको लेकर काफी आलोचना हुई थी। अमेरिका में रहने वाले अरबों को ये कमर्शियल ठीक नहीं लगा और उन्होंने इस पर आपत्ति जताई। जिसमें दिखाया गया था कि एक रेगिस्तान से ऊंट के साथ एक अरबी जा रहा होता है, तभी अमेरिकी ‘काउबॉय’ और ‘शोगर्ल’ का एक झुंड आता है जो अरबी और उसके ऊंट की तरह ही प्यासा है। वह कोका-कोला की बोतल की तरफ दौड़ लगाते हैं पर उन्हें वहाँ पहुंच कर पता चलता है कि प्यास बुझाने के लिए अभी और आगे जाना है। अब सवाल उठता है कि आखिर इसमें आपत्ति वाली क्या चीज थी। दरअसल, यह कमर्शियल पश्चिम का अरबों को लेकर स्टीरियोटाइप फिल्मांकन था। मसलन, अरब में पानी नहीं हैं। केवल रेगिस्तान है। वहाँ के लोग आज भी इतने पिछड़े हैं कि ऊंट की सावरी करते हैं। वहीं अमेरिकन अत्याधुनिक गाड़ियों से आते और ऊंट वाले अरब से आगे निकल जाते हैं। हालांकि, पिछड़ा इलाका होने के कारण उन्हें और आगे जाना पड़ता है। ऐसा क्यों है कि अरबों को हमेशा तेल से समृद्ध शेखों, आतंकवादियों या बेली डांसरों के रूप में दिखाया जाता है? अगर आप व्यापार के आंकड़ों को देखें तो सबसे व्यवस्थित सड़के, महंगी गाड़ियां और इलेक्ट्रॉनिक्स गैजेट का इस्तेमाल मध्य पर्व में होता है।
हॉलीवुड फिल्मों और टेलीविजन कार्यक्रमों में अरब खलनायक और आतंकवादियों की कमी नहीं है। जब 1994 में ब्लॉकबस्टर फिल्म ‘ट्रू लाइज’ (True Lies) शुरू हुआ, तब अर्नोल्ड अलोइस श्वार्जनेगर ने इसमें खुफिया एजेंसी के लिए काम करने वाले एक जासूस की भूमिका निभाई थी। इसके बाद अरब-अमेरिकी मूल के लोगों ने न्यूयॉर्क, लॉस एंजिल्स और फ्रांसिस्को सहित अमेरिका के कई शहरों में फिल्म के खिलाफ प्रोटेस्ट किया। क्योंकि फिल्म में एक ‘क्रिमसन जिहाद’ नाम के आतंकी गिरोह को नीच और अमेरिकी विरोधी के रूप में दिखाया गया था। लोगों को अरबों के इस चित्रण पर आपत्ति थी। क्योंकि यह किरदार भी स्टीरियोटाइप था। कमाल की बात यह है कि अरब विरोधी इस किरदार को जाने-माने फिल्मकार जेम्स कैमरून ने लिखा और फिल्ममाया था, जिन्होंने ‘टायटेनिक’, ‘टर्मिनेटर’ और ‘अवतार’ जैसी ऑस्कर विनर फिल्में बनाई है। इससे पता चलता है कि मुस्लिम विरोधी स्टीरियोटाइप कैसे काम करती है।
क्रूर और निर्दयी अरब

जब डिज्नी ने 1992 में अपनी फिल्म ‘अलादीन’ (Aladdin) को रिलीज़ किया, तो अरब-अमेरिकी ग्रुप्स ने अरब किरदारों के चित्रण पर नाराजगी जताई। उदाहरण के लिए, पहले मिनट में थीम सॉन्ग ने घोषणा किया कि अलाउद्दीन ‘दूर-दराज के ताल्लूक रखता है, जहां ऊंटों के कारवां घूमते हैं…जहां के लोग अगर आपके चेहरे को पसंद नहीं करते हैं तो वे आपके कान काट देते हैं। यह बहशीयाना है लेकिन…यह घर है।
हालांकि, डिजनी ने होम वीडियो रिलीज करने से पहले इस थीम सॉन्ग को बदला। लेकिन अरब अमेरिकी समूहों ने अपना विरोध जारी रखा। लोगों को सिर्फ थीम सॉन्ग से समस्या नहीं बल्कि एक दृश्य को लेकर भी था जिसमें एक अरब व्यापारी भूख से मर रहे बच्चे के लिए खाना चुराने वाली एक महिला का हाथ काटता है। इतना ही नहीं अरब-अमेरिकी ग्रुप्स ने फिल्म में मध्य पूर्व पर बनी फिल्म में यूरोप के लोगों के एक्टिंग पर भी आपत्ति जताई।
हार्वर्ड विश्वविद्यालय में मध्य पूर्व की राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर चार्ल्स ई. बटरवर्थ ने एक बार कहा था कि ‘क्रूसेड वार’ के बाद से, पश्चिमी लोगों ने अरबों को बर्बर बनाना और दिखाना शुरू किया। पहले साहित्य के माध्यम से और फिर फिल्मों के जरिए। दरअसल, ईसाई और यहूदी दुनिया की नजरों में अरब वे बर्बर लोग हैं जिन्होंने यरूशलेम पर कब्जा किया और उन्हें वहाँ से बाहर कर दिया। प्रोफेसर चार्ल्स ने तब कहा था कि यह सदियों से पश्चिमी संस्कृति का हिस्सा है और वह शेक्सपियर के कामों में पाई जाती है।
हिजाब और बेली डांसर

हॉलीवुड ने मर्द ही नहीं, बहुत थोड़ा ही सही अरब महिलाओं का भी प्रतिनिधित्व किया है। दशकों तक, मध्य पूर्व की महिलाओं को बेली डांसर और हरम की लड़कियां और हिजाब में रहने वाली युवतियों के रूप में फिल्माया है। फिल्मों में अरबी महिलाएं घूंघट में ढांपे चूप-चाप दिखाए देती हैं या यौन शोषण की शिकार। या फिर खानाबदोश। क्योंकि हॉलीवुड की नजर में, पेट दिखाकर बेली डांस करने वाली डांसर और नकाब पहनी हुई अरब औरत में कोई फर्क नहीं है। उनकी नजरों में घूंघट वाली महिलाएं और बेली डांसर एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। बेली डांसर अरबी मर्दों के अय्याशी की प्रतीक हैं, वहीं नकाब पहनी महिलाएं ज्यादती की शिकार। उदाहरण के तौर पर ‘अलाद्दीन’ (2019), ‘अरेबिन नाइट्स’ (1942), और ‘अली बाबा एंड द फॉर्टी थीव्स’ (1944) जैसी फिल्में उन्हीं में से हैं, जिसमें अरब औरत को डांसर के रूप में चित्रित किया गया।
अरब और बहशी मुसलमान
देखा जाए तो मीडिया भी हमेशा से अरब और यूरोपीय में रहने वाले अरब लोगों को मुसलमान के रूप में चित्रित करता आया है। भले ही अधिकांश अरब अमेरिकी ईसाई हैं और दुनिया के मुसलमानों का केवल 12 फीसद ही अरब मूल के लोग हैं। फिल्म और टेलीविजन में एक मुस्लिम को ऐसे लोगों के रूप में चित्रित किया जाता रहा है जैसे वे किसी और ग्रह से आए हुए प्राणी हों।

2000 की जनगणना में यह पाया गया कि लगभग आधे से अधिक अरब-अमेरिकी का जन्म संयुक्त राज्य अमेरिका में हुआ था और 75 फीसदी अच्छी तरह से अंग्रेजी बोलते हैं। जिनमें से अधिकतर का पहनावा वेस्ट्रन है। लेकिन बावजूद इसके फिल्मों का रवैया में कोई सुधार नहीं आया है। वैसे ही जैसे अमेरिकी मूल निवासी रेड इंडियन को हमेशा हॉलीवुड में क्रूर, लूटमार करने वाला और जंगलों में रहने वाले के तौर पर फिल्माया गया है। किसी ने भी उनके बार में यह कहने की जहमत नहीं कि बाहर से आए लोगों ने जब अमेरिकी संपदा का दोहन करना शुरू किया तो रेड इंडियनों ने उनके संहार से खुद को बचाने के लिए तीर चलाया।
पिछले दिनों दुनिया के अखबारों ने लिखा- फिल्म अभिनेता रिज़ अहमद ‘साउंड ऑफ मेटल’ में अपनी भूमिका के लिए अकादमी पुरस्कार में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए नामांकित होने वाले पहले मुस्लिम बन गए। जरा सोचिए आखिर एक मुसलमान को ऑस्कर लीड रोल नोमिनेशन तक पहुँचने में इतने दशक कैसे लग गए? फिलहाल, रिज़ जैसे लोग इस विषय पर अपनी बात रख रहे हैं और इस मुद्दों को बहस के क्रेंद्र में ला रहे हैं। कुछ दिनों पहले एक रिसर्च प्रकाशित हुआ जो पढ़ने लायक है।
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