दिल्ली दंगा: ताहिर हुसैन के भाई समेत 3 बाइज्जत बरी, कोर्ट ने लगाई पुलिस को फटकार

दिल्ली दंगा: ताहिर हुसैन के भाई समेत 3 बाइज्जत बरी, कोर्ट ने लगाई पुलिस को फटकार

दिल्ली की एक कोर्ट ने दिल्ली दंगों में मुख्य आरोपी रहे ताहिर हुसैन के भाई समेत तीन लोगों को बाइज्जत बरी कर दिया है। साथ ही कोर्ट ने पुलिस की जांच पर कई सवाल उठाए है। बीते दिनों भी कोर्ट ने कहा था कि पुलिस जांच के नाम पर केवल खानापूर्ति कर रही और कोर्ट में समय पर गाजिर नहीं होती।

पुलिस जांच पर तल्ख टिप्पणी करते हुए दिल्ली के कड़कड़डूमा कोर्ट ने गुरुवार को शाह आलम (ताहिर हुसैन के भाई), राशिद सैफी और शादाब को आरोपों से मुक्त कर दिया। कोर्ट ने पुलिस पर शख्स टिप्पणी करते हुए कहा कि ये दंगे दिल्ली पुलिस की विफलता के लिए हमेशा याद रखे जाएंगे।

तीनों नेहरू विहार इलाके के रहने वाले हैं। ताहिर हुसैन के भाई शाह आलम बढ़ई का काम करते हैं। जबकि सैफी प्राइवेट जॉब में करते हैं और शादाब अकाउंटेंट हैं। अभियोजन का पक्ष विशेष सरकारी वकील डी.के. भाटिया और अमित प्रसाद ने रखा। तीनों आरोपियों का बचाव एडवोकेट दिनेश तिवारी ने किया।

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पिछले साल 3 मार्च को यह केस दो शिकायतों के आधार पर दर्ज किया गया था। दोनों शिकायतें हरप्रीत सिंह आनंद की थीं, जो चांद बाग इलाके में फर्नीचर का काम करते हैं। उन्होंने दंगों के दौरान अपनी दुकान को आग लगाने और उसमें लूटपाट का आरोप लगाया था।

जस्टिस विनोद यादव ने अपने फैसला सुनाते हुए कहा, “मैं अपने आपको ये कहने से नहीं रोक पा रहा हूं इतिहास बंटवारे के बाद हुए इस सबसे भयंकर दंगे को पुलिस की विफलता के तौर पर याद रखेगा। इस कार्रवाई में पुलिस अधिकारियों की निगरानी में साफ कमी महसूस की गई। वहीं, पुलिस ने भी जांच के नाम पर कोर्ट की आंखों में पट्टी बांधने का काम किया।”

जज ने जोर देकर कहा, “दंगों की कार्रवाई के दौरान पुलिस ने सिर्फ चार्जशीट दाखिल करने की होड़ दिखाई है, असल मायनों में केस की जांच नहीं हो रही। ये सिर्फ समय की बर्बादी है।”

उन्होंने आदेश में कहा, “आरोपी के खिलाफ गंभीर संदेह पैदा न हो रहा हो तो अदालत को उसे रिहा करने का अधिकार है। मुझे यह जानकर दुख हो रहा है कि इस मामले में कोई वास्तविक/प्रभावी जांच नहीं की गई है और केवल कांस्टेबल ज्ञान सिंह का बयान दर्ज करके, वह भी बहुत बाद में, खासतौर पर जब आरोपी पहले से खजूरी खास थाने में दर्ज एक एफआईआर के तहत हिरासत में थे, जांच एजेंसी ने मामले को ‘सुलझा हुआ’ दिखाने की कोशिश की। मामले में जांच एजेंसी ने रिकॉर्ड पर जो सबूत रखे, वे आरोपी व्यक्तियों के खिलाफ आरोप तय करने के लिए बहुत ही कम हैं।”

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कोर्ट ने उक्त टिप्पणी को आगे बढ़ाते हुए कहा, “इतने लंबे समय तक इस मामले की जांच करने के बाद, पुलिस ने इस मामले में केवल पांच गवाह दिखाए हैं, जिनमें एक पीड़ित है, दूसरा कांस्टेबल ज्ञान सिंह, एक ड्यूटी अधिकारी, एक औपचारिक गवाह और आईओ। यह मामला करदाताओं की गाढ़ी कमाई की भारी बर्बादी है, इस मामले की जांच करने का कोई वास्तविक इरादा नहीं है।”

कोर्ट ने जांच पर सवाल उठाते हुए कहा, “यह बात समझ में नहीं आती है कि किसी ने दंगाइयों की इतनी बड़ी भीड़ को नहीं देखा जब वे बर्बरता, लूटपाट और आगजनी की होड़ में थे। शिकायत की पूरी संवेदनशीलता और कुशलता के साथ जांच की जानी थी, लेकिन इस जांच में वह गायब है।”

जज ने किसी मामले में खराब जांच की वजह से पीड़ितों/शिकायतकर्ताओं को होने वाले कष्ट और नुकसान का जिक्र करते हुए अदालत ने कहा, “यह अदालत ऐसे मामलों को न्यायिक प्रणाली के गलियारों में बिना सोचे-समझे इधर-उधर भटकने की इजाजत नहीं दे सकती है। इससे अदालत का कीमती न्यायिक समय खराब हो रहा है, जबकि यह ‘ओपन एंड शट’ मामला है। इससे सबसे ज्यादा कष्ट और पीड़ा शिकायतकर्ता/पीड़ित को होगी, जिसका मामला अनसुलझा है।

जस्टिस विनोद यादव ने कुछ आंकड़ों के जरिए बताया कि दिल्ली के उत्तर-पूर्वी जिले में हुए दंगों में 750 मामले दाखिल किए गए हैं, उसमें भी ज्यादातर केस की सुनवाई इस कोर्ट द्वारा की जा रही है। सिर्फ 35 मामलों में ही आरोप तय हो पाए हैं। कई आरोपी भी सिर्फ इसलिए जेल में बंद पड़े हैं क्योंकि अभी तक उनके केस की सुनवाई शुरू नहीं हो सकी है।


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