संस्मरण : सैयद अली शाह गिलानी- कश्मीर में अलगाववाद के प्रतीक

संस्मरण : सैयद अली शाह गिलानी- कश्मीर में अलगाववाद के प्रतीक

1 सितम्बर 2021 को पाकिस्तान में जम्मू और कश्मीर के विलय के समर्थक और अलगाववाद के नेतृत्व का सैयद अली शाह गिलानी के देहावसान के साथ एक युग का अंत है। वो 92 वर्ष के थे। गिलानी साहब ‘जमात-ए-इस्लामी’ के सदस्य रहे, विधानसभा के भी सदस्य रहे, हुर्रियत कांन्फ्रेंस में रहे और उससे अलग होकर तहरीक-ए-हुर्रियत बनाई। 1987 का विधानसभा चुनाव कश्मीर के आतंकवाद और अलगाववाद का एक मोड़ माना जाता है। वे उस चुनाव में जमात के प्रत्याशी के रूप में मुस्लिम युनाइटेड फ्रंट (MUF) पार्टी से सोपोर विधानसभा क्षेत्र से चुनकर आए।

यह चुनाव जम्मू और कश्मीर लिवरेशन फ्रंट को (JKLF) सीमापार से सश्स्त्र प्रशिक्षण के लिए प्रेरित किया और कश्मीर में पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद की शुरूआत उन प्रशिक्षित युवाओं द्वारा करीब 1989 में हुई। जेकेएलएफ व इंडिपेंडेंट कश्मीर का समर्थक रहा। यह पाकिस्तान के साजिश के अनुकूल नहीं था। गिलानी साहब जम्मू और कश्मीर का पाकिस्तान में विलय के समर्थक थे।

मैं पहली बार जम्मू और श्रीनगर 1987 में ठीक चुनाव के बाद गया, अमेरिकी दूतावास में राजनीतिक विभाग में आने पर। यह मेरी पहली यात्रा थी। उत्सुकता थी। कश्मीर को सिर्फ हिन्दी सिनेमा के जरिए देखा था और साथ ही एक स्मृति स्कूल से चली आ रही थी जब जयप्रकाश नारायण ने शेख अबदुल्लाह के समर्थन में कुछ बोला था, शायद जनमत-संग्रह (Plebiscite) के समर्थन में, तो उनके निवास पर महिला चर्खा समिति पर प्रदर्शन होते थे और दीवार पर उनके खिलाफ नारे लिखे गए थे। सर गणेश दत्त पाटलिपुत्र हाई इंगलिश स्कूल ठीक उनके निवास के सामने था। यह स्मृति मेरे साथ थी। श्रीनगर में ब्रॉडवे होटल (Broadway Hotel) में रूके थे। बड़ा ही अच्छा लग रहा था। वहाँ से निकलकर एक रात कश्मीरी खाना खाने के लिए अहदूस होटल गए और पहली बार बैरा के सिफारिश पर ‘गुशतबा’ खाया। जैसा कि आमबात रहा है, आई.बी. (I.B.) के लोग हमेशा पीछे लगे रहे। यह पता लग जाता था। उस यात्रा में मीरवाइज उमर फारूक, प्यारे लाल मट्टू, चमन लाल गुप्ता, युसुफ जमील, शेख नजीर से हमने मुलाकात की जो स्मरण है। यह जम्मू-कश्मीर को U.S. State Department के Behalf पर समझने की शुरूआत थी जो मेरे 2012 के रिटायरमेंट तक रही।

नब्बे के दशक के शुरूआती दौर में गिलानी साहब से मुलाकात हुई। उन दिनों उनका श्रीनगर में स्थायी निवास नहीं था। उनसे मुलाकात के लिए या तो उनके गाँव डूरू (सोपोर) जाना होता था, जो Wular Lake के पास है या वे श्रीनगर आते थे। हम भिन्न-भिन्न जगहों पर मिलते थे। गिलानी साहब शुरू के मुलाकातों में अनुवादक रखते थे अपने लिए और मैं भी काम करता था। शुरूआती दौर पर मेरे भारतीय होने और हिन्दू होने का भी उनलोगों को झिझक था। यह झिझक वक्त गुजरने के साथ करीब करीब एक दम-सा मिट गया।

संस्मरण : सैयद अली शाह गिलानी- कश्मीर में अलगाववाद के प्रतीक

गिलानी साहब में जो शुरूआती झिझक थी भाषा को लेकर व अमेरिकी डिप्लोमेट को लेकर, जो दूर होती गई और कुछ मुलाकातों के बाद वह खुद कॉन्फिडेंस के साथ बातचीत करने लगे। गिलानी साहब के गाँव डूरू कई बार जाने का मौका मिला। उस समय स्थिति यह थी कि सोपोर को Liberated Zone कहा जाता था और हमारा टैक्सीवाला ‘चाचा’ सोपोर से बतलव के सड़क पर आने और जाने के बाद अल्लाह शुक्र के लिए टैक्सी रोक कर नमाज पढ़ता था, नीचे उतर कर। इस यात्रा में हम प्रोफेसर अब्दुल गनी भट्ट के गाँव भी जाया करते थे उनसे मिलने के लिए। दोनों गाँवों में 7-8 किलोमीटर की दूरी थी। एक बार ईद के दिन हम गिलानी साहब के गाँव पहुंचे थे और बड़ा ही जायकेदार ‘पकवान’ खाया था। उन दौरों में एकबार करीब पांच हजार गाँव वालों ने हमारे टैक्सी को रोक कर ‘आजादी-आजादी’ के नारे लगाए। हमलोग भयभीत थे, नहीं जानते, भीड़ में कुछ भी हो सकता था। Neutrality को बरकरार रखने के लिए हम टैक्सी का इस्तेमाल और सरकारी सुरक्षा नहीं लेते थे। बाद के दिनों में, गिलानी साहब श्रीनगर रहने लगे, स्थायी निवास-हैदरपुरा में।

इन सब दौरों और मुलाकातों से एक सम्बन्ध भी बनने लगता है और यह परिवार से भी होने लगता है। उनके पुत्र नईम और नसीम और दामाद अलताफ शाह से भी सम्बन्ध बनने लगे। कुछ समय बाद वो दिल्ली भी आने लगे, पहले अपनी बेटी की इलाज के लिए। वो अपने सुप्रीम कोर्ट के वकील पाठक जी के यहां रूकते थे। पाठक जी शबीर अहमद शाह के भी वकील होते थे। हम वहां भी उनसे मिले। बाद में, 1995 में हुर्रियत का कार्यालय दिल्ली में खुला, मालवीय नगर में। फिर वहां मुलाकात होती थी।

इन सारी मुलाकातों में उनका स्टैंड साफ था और उसमें कभी भी कोई परिवर्तन नहीं पाया। दृढ़ थे कि Plebiscite होना हैं, U.N. Resoution है, Option दो हैं- भारत या पाकिस्तान। वे पाकिस्तान के साथ जम्मू और कश्मीर के विलय के पक्षधर थे। लड़के टेररिस्ट नहीं हैं, फ्रीडम फाइटर (Freedom Fighter) हैं। और भारत के साथ तभी बातचीत करेंगे जब भारत जम्मू और कश्मीर को Disputed territory मानेगा और चुनाव के विरोधी थे। इसमें उन्होंने कभी विरोधाभास नहीं दिखाया। इन सारी बातों को लेकर कई बार Heated exchange भी होते रहे। खासकर डायलॉग, वायलेंस, इलेक्शन और कश्मीरी पंडित के संदर्भ में।

इनसबों के बीच, पाकिस्तान द्वारा हिजबुल मुजाहिदीन का पदार्पण हुआ और उसका संबंध गिलानी साहब से जोड़ा गया। जेकेएलएफ स्वतंत्रता का हिमायती था। नतीजा था, JKLF Armed Cadre का अंत और कई बड़ी हत्याओं को जोड़ा जाने लगा हिजबुल से; जैसे- मौलावी मीरवैज फारूख, अब्दुल गनी लोन और प्रो. अब्दुल गनी भट्ट के भाई। बिलाल लोन और सज्जाद लोन यानी लोन साहब के पुत्रों ने गिलानी साहब और पाकिस्तान को दोषी ठहराया और आने वाले विधानसभा चुनाव (2002) में वे परोक्ष रूप से शामिल हुए। इस पर हुर्रियत में टूट हुई। और गिलानी साहब ने तहरीक-ए-हुर्रियत बनाया।

इसी बीच 1993 में श्रीनगर से धमकी भरी एक चिट्ठी आई दूतावास में कि कैलाश झा Indian dog है और वो फिर कश्मीर न आए। नहीं तो वह जिंदा वापस नहीं जाएगा। गिलानी साहब दिल्ली आए हुए थे, और जम्मू एंड कश्मीर हाउस, कौटिल्य मार्ग में रूके हुए थे। उनका वहां रूकना आश्चर्यजनक था। हमलोग उनसे मिलने गए और उन्होंने साफ तौर पर कहा गया कि कैलाश झा, अमेरिकी सरकार को प्रतिनिधित्व करता है और उसे कुछ भी नहीं होना चाहिए। He was told in no uncertain terms. उन्होंने आश्वासन दिया कि कैलाश को कुछ भी नहीं होगा और वो कश्मीर आते रहें।

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इसी बीच 1995 में, Hostage Crisis हुआ। अलफरान नामक आतंकवादी संगठन ने अमरीकी, ब्रिटिश, जर्मनी और नोरवे के नागरिकों को बंधक बनाया। हमलोग श्रीनगर में इस कारण रहने लगे और बंधकों को छुड़ाने के प्रयास में लगे रहे। दुःखद बात यह हुई कि सभी बन्धक मारे गए। इस संदर्भ में हम हमेशा गिलानी साहब से मिलते रहे। हमने महसूस किया कि उन्होंने सही मायने में इसके लिए प्रयास नहीं किया और पाकिस्तान व आतंकवादियों के संगठन पर दबाव नहीं डाला।

वो बडे़ ही गर्मजोशी के साथ मिलते रहे, मेहमाननवाज़ भी रहते थे। उनका Customary स्वागत रहता था माथे को चूमना (Kiss on forhead). इसे एक राजनायिक ने कमेंट किया- ‘Kiss of death’। कई बार उनके सहयोगी भी साथ होते थे। एक के बारे में कहा जाता था कि उनके पास लिस्ट है लोगों की। एक और राजनायिक ने कमेंट किया,’He issues death warrants’।

इन्हीं दिनों एक मुलाकात में उन्होंने कुरान की प्रति उपहार स्वरूप दिया। यह कुरान का अंग्रेजी ट्रांसलेशन था और बहुत ही सुंदर प्रति थी। इसका प्रकाशन साउदी अरब में हुआ था। और राजनायिकों को वह प्रति बहुत ही पसंद आई। वो लालायित हो गए। एक-एक कर सभी को मैंने उसकी प्रति गिलानी साहब से दिलवाई। वह प्रति मेरे पास अभी भी है, As prized collection with his inscription. गिलानी साहब ने उर्दू में जेल डायरी लिखी और अपनी आत्मकथा भी। यूएस लाइब्रेरी ऑफ कांग्रेस (U.S. Library of Congress) के लिए मैं ही कश्मीर से प्रकाशित पुस्तकों को कभी-कभी लाता था। हुर्रियत कांफ्रेंस का एक विंग मानवाधिकार उल्लंघन पर एकतरफा पुस्तकें प्रकाशन करता था। उनके लिए मैं वो जेल डायरी और आत्मकथा की प्रतियां ला रहा था और हवाई अड्डे पर कई लोगों ने व्यंग किए। उर्दू में होने के कारण मैं इसे पढ़ नहीं पाया।

धीरे-धीरे इन सबका नतीजा ये हुआ कि Policy decision लिया गया कि गिलानी साहब से मिलना बंद और उनका बॉयकॉट किया जाने लगा। आकलन हुआ कि यह बदलने वाले नहीं है और इस उम्र में इस पड़ाव पर ये जाना चाहेगें इस संसार से Martyrs (शहीद) के रूप में और जम्मू-कश्मीर के मुस्लिम जनता उन्हें याद रखेगी इसके लिए। वो बीमार भी रहने लगे थे।

मुफ्ती मुहम्मद सईद 2002 में मुख्यमंत्री बने। उन्होंने डायलॉग का दरवाजा खोलने का प्रयास किया। गिलानी साहब रांची (झारखंड) जेल में थे। उनका स्वास्थ गंभीर था। मुफ्ती सरकार उन्हें अपने प्रयास से बंबई ले गई इलाज के लिए (2003)। मैंने भी दूतावास में यह बात रखी कि हमें भी द्वार खुला रखना चाहिए बातचीत का, एक स्तर पर। मैंने कहा कि मेरे स्तर पर इसे होने दिया जाए। मानवीय वजह भी है और मेरा सम्बन्ध भी सालों से रहा है। मुझे उनके स्वास्थ्य की कामना करने से सारी चीजें हो जाएंगी। मेरी बात मानी गई और मैंने उनके दामाद अलताफ शाह को बम्बई फोन कर गिलानी साहब के स्वस्थ्य होने की कामना की।

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2004 में मेरी बड़ी बेटी की शादी थी। मुझे कहा गया कि गिलानी साहब के अलावा मैं किसी को भी कश्मीर में निमंत्रित कर सकता हूं। मैंने यह बात मानी। समझौता था। कश्मीर से सभी पक्ष के लोग आमंत्रित थे और सभी आए भी। भारतीय समाजिक परिपेक्ष्य में यह हो जाता है कि आपका परिवारिक संबंध स्थापित हो जाता है सालों के Interaction से। कई लोग शादी से निकलते हुए टिप्पणी करते गए- ‘‘कैलाश पहली बार तुम जम्मू-कश्मीर के सभी पक्ष को एक जगह एकत्रित करने में सफल हुए हो और तुम्ही इसका हल कर सकते हो।’’ यह अतिशयोक्ति थी। लेकिन यह सही था कि मुख्यमंत्री, मुख्य न्यायधीश से लेकर हुर्रियत के नेता, कश्मीरी पंडित, भारतीय इंटिलिजेंस ब्योरो, जम्मू-कश्मीर पुलिस पदाधिकारी, प्रशासनिक अधिकारी, सारे पार्टियों के मुख्य नेता मौजूद थे।

फिर 2012 में रिटायरमेंट के दिन मैंने वरिष्ठ अधिकारियों को इत्तला करते हुए गिलानी साहब को फोन किया। मैंने बताया, आज मैं रिटायर हो रहा हूं। हमारे बीच कोई व्यक्तिगत Issue नहीं था। All was on line of duty. उन्होंने पूछा- “क्या कार्यालय को पता है कि मैं उनसे बात कर रहा हूं?” मैंने कहा, “हां, और मैं अपने ऑफिस से ही बात कर रहा हूं।”

कुछ दिन पहले बात यह हुई थी कि उन्होंने Medical Treatment के लिए American Visa के लिए Apply किया था। वह रिजेक्ट किया गया था। यह समाचार पाकिस्तान के मीडिया और भारत के नेशनल मीडिया में भी आया था। कहा गया था कि उनके लड़के कैलाश झा से दूतावास में मिलें थे। यह बात सही था। उनके लड़के मिले थे और मैंने कहा था कि Everyone is free to apply, getting it is a different thing. उन्होंने अप्लाई किया। जम्मू-कश्मीर पुलिस को इस संदर्भ में मेरे ऊपर खतरे की भनक मिली। शायद उन्होंने दिल्ली के Special Branch Anti Terrorism को इत्तला की होगी। उन्होंने मुझसे और दूतावास से संम्पर्क स्थापित किया। मुझे उन्होंने लोधी कॉलोनी के अपने कार्यालय में बुलाया। मैंने बताया, अभी तक मैं महसूस नहीं किया हूं, किसी का पीछा करना या संदेहास्पद तरह की चीजें। उन्होंने मुझे सतर्क रहने को कहा और अपने तरफ से Unvisible cover करने की सूचना दी।

2016 में छोटी बेटी की शादी में मैंने गिलानी साहब और उनके दामाद अलताफ शाह को निमंत्रित किया। मेरे मन में कचोट था बड़ी बेटी की शादी से ही। वो लोग नहीं आ पाए थे कई कारणों से। लेकिन गिलानी साहब की नतिनी व अलताफ की बेटी ने आकर उनका प्रतिनिधित्व किया।

यह संस्मरण है। इससे साफ संकेत मिलता है कई बातों का। साथ में अमरीकी रूख का कश्मीर को लेकर। बदलाव 90 के दशक के मध्य से शुरू हो चुका था। मेरी छोटी भूमिका रही है और उसके लिए मैं अपने को भाग्यशाली मानता हूं।

गिलानी साहब आप अपने Conviction के साथ जहां भी हों शांति से रहें। हमारा लंबा Association रहा है। We agreed to disagree. मेरी कामना है- You rest in peace.

-कैलाश चंद्र झा (लेखक अमेरिकी दूतावास, नई दिल्ली में 1987 से 2012 तक राजनैतिक सलाहकार के रूप में कार्यरत रहे। 25 साल तक जम्मू-कश्मीर में U.S. State Department के चेहरा रहे और राजनीति को domestic व International level पर समझने की कोशिश की। इसके अलावा इन्हें U.S.State Department के Distinguished Honor Award से नवाजा गया। विचार लेखक के निजी हैं।)


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