हरभजन सिंह मेहरोत्रा की कहानी: कुख्यात

हरभजन सिंह मेहरोत्रा की कहानी: कुख्यात

हरभजन सिंह मेहरोत्रा लेखक, कथाकार और प्रौद्योगिकविद् हैं। इन्होंने लेखन के साथ ‘रमतदीप’ पत्रिका का संपादन भी किया। उपन्यास ‘अनास जिन्दगी’ प्रकाशित, साहित्यकारों पर लिखे व्यक्ति चित्र ‘सफर के साथी’ का प्रकाशन 1988 में हुआ। तकनीकी अध्ययन से संबन्धित कई पुस्तकें प्रकाशित हुई। कई कहानियां प्रकाशित एवं पुरस्कृत।


मेरे अन्दर दाखिल होते ही उसने उचटती नजरों से मुझे देखा था और फिर अपने सामने बैठी महिला में अपने आपको व्यस्त कर लिया। मुझे धक्का-सा लगा, क्योंकि मुझे उससे ऐसे व्यवहार की उम्मीद नहीं थी, मैं तो यह सोचते हुए वहाँ तक गया था कि, मुझे देखते ही वह उत्साह से भर जाएगा और बड़ी गर्मजोशी से मुझे, अपनी जगह से उठकर, बल्कि मेरे समीप आकर गले मिलेगा और साथ लिवा कर ले जाएगा, अपने आसन तक लेकिन यहाँ आते ही उसका रूखा रवैया मुझे कचोट गया।

“क्या मुझे पहचान नहीं पाया।” पर ऐसा कैसे हो सकता है। मन-मसोस कर मैं सबसे पीछे एक कोने में जाकर बैठ गया न चाहते हुए भी मुझे यहाँ उसके पास आना पड़ा था, यह बात रह-रह कर मेरे अंतर में शूल की तरह खुब रही थी, पत्नी के ऊपर खीझ-सी हावी होने लगी थी आखिर जिद तो उसी की थी। पिंटू पिछले चार रोज से रात को सोते-सोते रोने चिल्लाने लगता, ‘‘वो आ गया…. मुझे मार डालेगा…. खा जाएगा…. बचाओ… पापा…. बचाओ।’’

उसकी करुण और दहशतज़दा आवाज से मैं भी कांप जाता फिर विभा पर क्या बीतती होगी। दो रोज से मैं सोच रहा था शहर जाकर किसी अच्छे डॉक्टर को दिखाऊँ पर फैक्ट्री में काम ज्यादा होने से और रिलीवर के न आने के कारण दूसरी पाली में भी रुकना पड़ रहा था।

विभा कल से एक ही रट लगाए बैठी थी, ‘‘बाबा के पास हो आओ…. झाड़ देगा तो पिंटू अच्छा हो जाएगा…. तुम नहीं जानते यह सब हवा का चक्कर है।’’ मैं टालते हुए कहता, ‘‘यह सब फालतू बातें हैं… पढ़ी-लिखी होकर अंधविश्वासों में पड़ी हो तुम्हारी सोच तो एकदम साफ और खुली होनी चाहिए।’’

‘‘तुम माँ नहीं हो इसीलिए ऐसा कहते हो!’’ शायद इसी बात ने मुझे इस व्यक्ति तक आने के लिए विवश कर दिया था। वैसे भी औरतें अमूमन अंधविश्वासी होती हैं और फिर बच्चों के प्रति उसकी ममता कुछ भी करा ले।

पिछले छः महीनों से मैं यहाँ पर था लेकिन एक दफा भी मैं बाबा के पास नहीं जा सका था फिर यह भी कहाँ मुझसे मिलने आया था। चाहता तो आ सकता था या चाहता तो मैं भी जा सकता था।

पहली बार जब मुझे उसके बारे में पता चला तो कतई नहीं जानता था कि बाबा असल में कौन है। कोई भी हो मुझे इससे कोई सरोकार नहीं था। होना भी नहीं चाहिए था। लेकिन अचानक एक दिन हाट में उससे मुलाकात हो गई थी। मुझे उसकी वेशभूषा और शारीरिक तौर पर हुए परिवर्तनों के कारण पहचानने में कुछ वक्त लगा था जबकि उसने देखते ही मुझे पहचान लिया था। उसकी उपस्थिति जहाँ मेरे लिए आश्चर्य का विषय थी। वहीं उसका पहनावा मेरे अन्दर कौतूहल जगा रहा था।

गेरुआ वस्त्र, गले में रुद्राक्ष और न जाने कैसी-कैसी जड़ी-बूटियों की मालाएँ, माथे पर लम्बा तिलक और दोनों हाथों की सभी उंगलियों में तरह-तरह के सादे, सफेद, रंगीन पत्थरों की अंगूठियां, कुछ भी हो इन सबके बावजूद उसके समूचे व्यक्तित्व में एक आकर्षण था। फिर भी, “आखिर इसे क्या हो गया…. यह क्या स्वांग रचा रखा है…।’’ यह सोच मुझे अन्दर ही अन्दर मथे जा रही थी, तभी उसकी आवाज से चौक कर अपने-आपको उसकी ओर उन्मुख किया था।

‘‘तुम यहाँ पर दो महीनों से हो… और अमराई के बगल में जो एक मंजिल का मकान है वहीं अपने एक बच्चे और मिसेज के साथ रह रहे हो।’’

मुझे उसकी जानकारी पर हैरानी थी, ‘‘ तुम्हें तो सी.आई.डी. में होना चाहिए… कहीं इन कपड़ों की आड़ में छिपे कोई एजेण्ट तो नहीं हो?

वह मुस्कुराया भर था, ऐसी मुस्कुराहट जो केवल निरीह और अंजान लोगों से गलती हो जाने पर उन्हें छोड़ देने पर होठों पर आती है।

‘‘सब ठीक तो है…!’’ दोनों हाथ ऊपर उठाकर हवा में हिलाते हुए कहा था उसने मैं कुछ कहता, इससे पहले ही वह अपने चेलों-चपाटों के साथ आगे बढ़ गया था। अपने आपको विशिष्ट साबित करने जैसे अंदाज में।

“तो यही है… बाबा….. कथित बाबा….!” सोचकर ही रह गया था तभी जेहन में उसके पास जाने की इच्छा भी हुई थी और किसी दिन जाकर मिलँूगा वह सोचते हुए वापिस घर लौट आया था।

वैसे गाँव में उसके बारे में तरह-तरह की चर्चाएं थीं जो गाहे-बगाहे किसी न किसी के मुँह से अक्सर सुनी जा सकती थी। इन चर्चाओं में अधिकतर उसके चमत्कारिक कारनामों का उल्लेख हुआ करता लेकिन साथ ही बाबा की शौकीन तबियत के बारे में भी बातें होतीं पर दबी और धीमी आवाज में।

‘‘आप नहीं न जानते… बाबा जी ने हवाओं को काबिज किया है।’’ लहजे में जहाँ हैरानी होती थी वहीं अपार श्रद्धा भी दिखाई पड़ती। ‘‘बड़े पहुँचे हुए हैं… तंत्र-मंत्र सिद्ध किए हुए…. रोज देवी की सवारी आती है, इन पर कुछ भी पूछ लो मजाल है कि कोई बात गलत निकल जाये।’’

‘‘सच कहते हो भईया… हम तो बहुत परेशान थे, घरैतन की बीमारी से कभी सिर लिए बैठी है… तो कभी पेट। डॉक्टर के पास दौड़ते-दौड़ते थक गए रहे… हार कर गए उनकी सरन में, बता दिया, ‘‘बुरी हवा का चक्कर है चिंता मत करो हम सब ठीक कर देंगे खर्चा जरूर हुआ पर काफी आराम है।”

मसलन कोई बीमारी के लिए, कोई नौकरी के लिए तो कोई अपने दुश्मन को परास्त करने के लिए बाबा के दरबार में हाजिर दिखाई पड़ता। और अगर ऐसे में कोई औरत उसकी शौकीन तबियत का शिकार हो जाती तो इसे केवल रोजमर्रा में होनेवाली मामूली घटना समझकर रफा-दफा कर दिया जाता। वैसे भी इस मामले में वैद्यपुरा का माहौल कुछ अच्छा नहीं था। आदमियों में एक-दूसरे की औरतों के लिए ऐसे तमाम किस्से जिनमें अमुक आदमी की औरत का फलाँ आदमी से संबंध है, चर्चा का विषय होते लेकिन इन चर्चाओं में हिस्सा लेने वाले व्यक्तियों की अपनी बीवियों का किनसे क्या और कैसे संबंध बने हुए हैं जानते या न जानते हुए भी अनभिज्ञ बने रहते।

फिर बाबा के लिए उसकी मनोवृत्ति के अनुकूल इससे बढ़िया जगह और कहीं मिलती। उसकी इस आदत को मैं बचपन से जानता था। उस समय उसके क्रिया -कलाप महज लड़कियों को देखने और अश्लील फिकरे कसने तक सीमित थे लेकिन वय संधि तक पहुँचते-पहुँचते जो पहला कारनामा उसने अंजाम दिया वो था घर में बर्तन माँजने वाली औरत के साथ बलात्कार।

लेकिन जहाँ तक उस बलात्कार का संबंध है उसके बारे में भी दो मत थे। कुछ इसे जबरदस्ती मानते थे और कुछ लोगों का मानना था कि वह सब काम रजामंदी से हुआ है। फिर भी सच्चाई क्या थी यह जानना इतना जरूरी नहीं था सच सिर्फ यह था कि उसने एक जवान औरत के साथ गलत काम किया था। मुझे उसकी हिम्मत पर हैरानी थी। मैंने उससे पूछना भी चाहा था कि बलात्कार करते समय तुम्हें कैसा अनुभव हुआ?

लेकिन मेरे संस्कारों ने मुझे संकोच के आवरण से बाहर नहीं निकलने दिया हालांकि मेरी कुष्ठ मानसिकता ने मुझे कई दफे उस बर्तन माँजने वाली के सामने उस स्थिति में प्रस्तुत कर दिया था जिस दशा में सुरेन्द्र ने उसके साथ बर्ताव किया और जिसकी कल्पना मेरी आँखों में बार-बार सजीव हो उठी थी।

उस घटना के बाद मेरे और उसके दरम्यान एक फासला बढ़ना शुरू हो गया था। इस दूरी की शुरुआत किसने की यह तो याद नहीं लेकिन बढ़ती हुई दूरियों का यह सिलसिला कुछ मेरी तरफ से तो कुछ उसकी तरफ से बराबर-बराबर हुआ था।

फिर उसकी सोहबत भी एक ऐसे वर्ग से हो गयी थी जिसे समाज में अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता और न ही इस वर्ग से उलझने या उनके उल्टे-सीधे कार्यों में हस्तक्षेप करने की कोई हिम्मत कर सकता है।

एक समय ऐसा भी आया कि एक दूसरे के बारे में जानने-सुनने की दिलचस्पी तक खत्म हो गई। कम-से-कम मेरे साथ तो ऐसा ही हुआ। इस बीच मेरा दाखिला भी इंजीनियरिंग कॉलेज में हो गया और मैं हॉस्टल में रहने लगा था। कभी-कभार या फिर लम्बी छुट्टियों में घर जाना होता तो भूल से सुरेन्द्र कपूर का जिक्र जबान पर आ जाता। लेकिन वह कहाँ है। क्या कर रहा है न सिर्फ मैं जानता था बल्कि उसके घरवालों को भी शायद उसके बारे में कुछ नहीं मालूम था। लिहाजा ज़ेहन में उसकी यादों पर समय की मोटी-मोटी तहों का जम जाना लाजमी था।

लेकिन सुरेन्द्र कपूर से बाबा बनने की कहानी ने मेरे अन्दर खासा कौतूहल पैदा कर दिया था। पहेली बना बाबा उर्फ सुरेन्द्र कपूर महिला को झाड़ रहा था। सिर से लेकर पाँव तक, उसके हाथ बड़े बेतरतीबी से औरत के बदन को टटोलते हुए ऊपर-नीचे हो रहे थे और वह आँखें मूंदे बुदबुदाते हुए बीच-बीच में मुँह से लम्बी-लम्बी फूँकें छोड़े जा रहा था।

बार-बार जेहन में बस एक ही बात आ रही थी कि कहाँ आकर फँस गया हूँ। लेकिन विभा के कारण अपने-आपको जबरदस्ती रोके हुए था। फिर पिंटू का खौफ खाया चेहरा, सहमी-सहमी सी आँखें जब-तब मेरे जेहन में आकर मुझे उद्धेलित कर जाती और मैं मजबूरी को हालात की अनिवार्यता मानकर स्वयं को बाबा के सामने आत्मसमर्पित कर देता।

इसी ऊहा-पोह में फँसे मुझे समय का अहसास ही नहीं हुआ। बाबा की आवाज से ही वापिस लौटा भीड़ अब नहीं थी। मैं अपनी जगह से उठकर बाबा के समीप जाकर बैठ गया था। वह फैक्ट्री के एक कर्मचारी से गुफ्तगू कर रहा था बहुत धीरे-धीरे कर्मचारी को भी शायद सुनने में असुविधा महसूस हो रही थी। बहरहाल, उससे निपटने में करीबन पन्द्रह मिनट लग गए होंगे बाबा को। उसे विदा कर मेरी ओर मुखातिब होते हुए सुरेन्द्र ने मुस्कुरा कर देखा था, ‘‘अब फुर्सत मिली है?’’

‘‘मुझे या तुम्हें….।’’ मैंने भी तपाक से कह दिया।

वह तुरन्त गम्भीर हो गया। शायद मेरे कहने के ढंग या संबोधन ने उसे अपनी वास्तविकता का बोध कराया होगा या मेरे इस तरह से बोलने के कारण उसे अपनी बेइज्जती महसूस हुई होगी। जो भी रहा हो उसी मुद्रा में उसने मुझसे मेरे आने का कारण पूछा और मैंने भी बिना किसी भूमिका या लाग-लपेट के उसे पिंटू के बारे में सब कुछ बता दिया।

‘‘घर चलना पड़ेगा… और जल्दी ही कुछ करना पड़ेगा… वरना।’’ उसने गहरी नजरों से मुझे देखा।

‘‘वरना क्या।” मेरे मन में शंकाओं और परेशानियों का ज्वार उठा।

‘‘परेशान होने की बात नहीं, सही वक्त पर आये हो, सब ठीक हो जाएगा।’’ मैं कुछ सोचता और परेशान-सा चुप्पी लगा गया।

उसने तुरत-फुरत में बाकी बचे लोगों को निपटाया और मुझे पाँच मिनट में ‘आये’ कहकर दूसरे कमरे में चला गया। जब वापिस लौटा तो बदन में सिल्क का लकझक करता सफेद कुर्ता आ गया था। गले में एक दो मालाओं की वृद्धि हो गयी थी। चेहरा भी किसी चमकदार लोशन से खिड़की के रास्ते आती धूप में लिश्कारे मार रहा था। बालों में सलीके से कंघी और पैरों में बढ़िया किस्म की चप्पलें सबने मिलाकर उसके व्यक्तित्व को विदूषक-सा बना दिया था हालांकि यह मेरी अपनी सोच थी।

मेरे साथ वह जब बाहर निकला तो रास्ते में मिलने वाले तकरीबन सभी लोगों ने उसके सामने बड़ी श्रद्धा से हाथ जोड़े। इन लोगों में कुछ एक फैक्ट्री के कर्मचारी भी थे जिन्होंने उसके सामने तो जरूर हाथ जोड़े लेकिन मुझे कत्तई अनदेखा कर दिया यह बात मुझे कचोटी भी लेकिन इसके अलावा कुछ और नहीं हो सकता था। लिहाजा चुप्पी का आवरण ओढ़े सुरेन्द्र के साथ कदम-से-कदम मिलाते हुए घर पहुँचा। विभा बाहर ही खड़ी मिल गई। बाबा को साथ आया देख उसके चेहरे में हैरानी मिश्रित खुशी झलकने लगी और फुर्ती से दरवाजे का पर्दा एक तरफ सरका कर वह बाहर आ गई। मुझे पत्नी के ऐसे व्यवहार से कोई खुशी नहीं हुई लेकिन चुप्पी, मजबूरी के सामने यहां भी नहीं टूट पायी। नजदीक पहुँचने पर उसने बड़ी श्रद्धा से नतमस्तक होकर हाथ जोड़े और बाबा ने दोनों हाथ हवा में उठाकर आशीर्वाद देने जैसी मुद्रा बनाई फिर मुझे देखा गर्वीली नजरों से, तुम क्या समझोगे मेरी अहमियत को। कुछ ऐसे ही भाव होंगे उसके मन में और हम लोग अन्दर दाखिल हो गए।

बाबा को एक तरफ बैठने का इशारा करके पत्नी से पिंटू के बारे में पूछा और साथ ही पानी लाने के लिए कहा। विभा ने तत्परता से बाबा के सामने तश्तरी में पानी का गिलास रख कर पेश किया और पिंटू को बाहर से लिवा लाने के लिए कहते हुए बोली, ‘‘खान साब के घर गया होगा… जरा देख लो।’’

‘‘खान साब के घर अर….रे…!” सुरेन्द्र एकदम से बोल पड़ा, ‘‘भाभीजी आप भी क्या!” एक क्षण रुका फिर बोला, ‘‘खैर आपको कुछ मालूम नहीं… अब बेटे को उनके घर मत भेजिएगा।’’

विभा काँपकर रह गयी और मेरे अन्दर भी कुछ और जानने की उत्सुकता उमड़ आई। ‘‘क्यों ?’’ सायास मैंने पूछा।

‘‘तुम पहले उसे लेकर आओ। ’’ हँसते हुए उसने कहा।

मेरी बात निकलते-निकलते विभा की आवाज मेरे कानों से टकराई, ‘‘कोई खास बात है।’’

सुरेन्द्र ने क्या कहा, यह मैं नहीं सुन सका क्योंकि मेरा सारा ध्यान पिंटू को बुलाने में चला गया था। आवाज सुनकर, ‘‘जी पापा’’ कहता हुआ वह मेरे पास आ गया, ‘‘आओ…बेटा’’ कहते हुए मैंने उसका हाथ पकड़ लिया। लेकिन खेल में रमे बच्चे को बीच से ही खींच कर घर ले जाने का मेरा आदेश उसके मन में मायूसी-सा घोल गया चेहरा क्षण भर में म्लान हो गया फिर भी वह मेरे साथ मन मसोस कर चल पड़ा।

हम जितना भी अंधविश्वासों और कुरीतियों से दूर भागे लेकिन कहीं न कहीं हमारे संस्कार हमें झुका देते हैं इनके सामने और सहसा सब कुछ विश्वास कर लेने को मन कर जाता है। खासतौर से तब जब अपने ऊपर पड़ती है ऐसा ही कुछ हाल मेरा भी हो रहा था और रह-रह कर वो चमत्कार जो सुरेन्द्र ने अपनी कुटिया में दिखाए थे वे सब हकीकत बनते नजर आने लगे थे। लेकिन इन सबके बावजूद जेहन के किसी कोने में इन सब कौतूहलों के प्रति आस्थावान न होने का बीज निरन्तर पल्लवित हो रहा था। जो सुरेन्द्र के आलौकिक चमत्कारों को झुठलाने में मेरी मदद कर रहा था। फिर खान साब के प्रति मैं कतई सशंकित नहीं हो पाया था। उनके जैसा सीधा-शरीफ इंसान कोई गलत हरकत करे, मेरे गले नहीं उतर रही थी सुरेन्द्र की बात लेकिन पिंटू के लिए भावुकता में बह कर किसी के लिए कुछ भी सोचना स्वाभाविक है और यही दशा इस समय न सिर्फ मेरी थी बल्कि विभा का खान साहब की बीवी से इतना मेल-जोल होने के बावजूद, वह भी इन लोगों के प्रति तुरन्त संदिग्ध हो गई थी, पिंटू को देखते ही लपक कर अपने पास खींचते हुए कहा भी उसने, ‘‘आदमी के चेहरे पर नहीं लिखा होता–!’’ कहते-कहते उसने मेरी तरफ देखा।

‘‘आखिर बात क्या है! भई तफसील से बयान करो’’ मुझे विभा की नादानी पर हँसी आई लेकिन हँसते हुए तो नहीं अलबत्ता मुस्कराते हुए बाबा से पूछा। सुरेन्द्र ने किसी पहुँचे हुए तपस्वी की भाँति अपनी आँखें मूंद ली। मैंने विभा की तरफ देखा वह बाबा की मुद्रा को देखकर निहाल हो जाने वाली दशा में पहुँच चुकी थी। मुझे विभा की भाव-भगिमाएँ काफी हास्यास्पद लगीं और उसे इशारे से कुछ कहने के लिए हाथ उठाया तभी बाबा ने विभा से पानी का गिलास मंगवाया और पिंटू को पुचकारते हुए अपनी तरफ आकर्षित करने की कोशिश की। दरअसल, पिंटू अपने झेंपू स्वभाव के कारण अब तक सकुचाया हुआ विभा का आँचल थामे इधर-उधर ध्यान केन्द्रित करने में अपने आपको व्यस्त किए हुए था। मैंने उसे बाबा के पास जाने के लिए उत्साहित किया लेकिन वह और जमीन में गड़ गया।

इस बीच विभा पानी से भरा गिलास ले आई और उसे बाबा के सामने रखने लगी कि तभी बाबा ने टोकते हुए उससे कहा, ‘‘गिलास दहलीज पर रख दीजिए ढककर।’’

‘‘अब दिखाएगा चमत्कार।” मन में ही कहकर रह गया और दोबारा पिंटू को बाबा के पास जाने के लिए कहा। विभा ने भी जोर दिया तो वह अपने स्थान से हिला।

‘‘कहीं इससे बेवजह के सवाल न पूछने लगे’’ घड़ी देखी सुरेन्द्र को आए आधा घण्टा हो चला था उसकी उपस्थिति से मेरे ऊपर अकुलाहट और बेचैनी-सी तारी होने लगी थी।

सुरेन्द्र आँखें मूंदे मन-ही-मन कुछ बुदबुदा रहा था। बीच-बीच में लम्बी फूंक भी छोड़ देता पिंटू बेचारा कुछ सहमा लेकिन अचरज से उसकी तरफ लगातार देखता चला जा रहा था। फूँक प्रक्रिया तकरीबन तीन मिनट तक चली। आखिर में सुरेन्द्र ने फिर एक चमत्कार किया। विभा से दहलीज में पड़े हुए गिलास को उठा लाने के लिए कहा।

‘‘जरा… यह कटोरी हटाइए!’’

अन्यमनस्क-सी विभा ने गिलास पर से कटोरी उठाई तो अवाक् रह गई। उसके अन्दर से सेब तैर रहा था।

‘‘अब इसे काटकर सबको खिला दीजिए… और हाँ…. पिंटू पर जो आफत आयी थी, वह दूर हो गई है’’

‘‘क्या अब यह नहीं डरेगा….!’’ सहसा विभा पूछ बैठी।

‘‘रात को सोते-सोते नहीं चिल्लायेगा!’’ हँसते हुए सुरेन्द्र ने कहा।

‘‘इसे मैस्मरिज्म कहते हैं।” आखिर मैंने कह ही दिया। लेकिन यह भी जानता था, उसका क्या जवाब होगा।इसलिए उसके उत्तर की प्रतीक्षा किए बगैर मैंने विभा से चाय-नाश्ते का प्रबन्ध करने के लिए कहा तो भी यह सोचकर कि है तो मेरे बचपन का साथी ही।

विभा कमरे के अन्दर छाये तिलिस्म से बाहर आयी और फौरन ही उठ गयी। मुझे ताज्जुब नहीं हुआ क्योंकि विभा की यह फुर्ती सुरेन्द्र के कथित कारनामों का ही परिणाम था जिसने उसके प्रति विभा के अन्दर श्रद्धा और सम्मान उत्पन्न कर दिया था।

‘‘ऐसा है… मेरे भाई… तुम इसे मेस्मरिज्म ही कह सकते हो क्योंकि मैं इसे अपने आप तो बना नहीं सकता हाँ जो भी सामान में देवी माँ पर चढ़ाता हूँ उसी को मंत्र द्वारा आप तक पहुँचाता हूँ।’’

‘‘आखिर तुम इस रास्ते पर कैसे चल पड़े!’’

मेरे सवाल पर उसने जोरदार कहकहा लगाया, ‘‘बहुत लम्बी दास्ता है… बस्स इतना ही समझ लो जो कुछ भी मेरे साथ हुआ वो एक चमत्कार ही था।

‘‘तुम्हारे समाज ने मुझे बहुत बदनाम कर दिया था…!’’

‘‘तब भी इसी समाज की सेवा में अपने आपको अर्पित कर दिया।’’

मेरी बात सुनकर उसे हार्दिक प्रसन्नता हुई। शब्दों द्वारा तो नहीं उनके चेहरे पर आए भावों से मुझे ऐसा ही जाहिर हुआ।

‘‘मुझे इस सेवा से बहुत सुकून मिलता है। लेकिन मन जो है वो अभी भी मेरे काबू में नहीं है। दोस्त हो इसीलिए बता रहा हूँ, ये देखो…!’’ उसने अपने कुर्ते के बटन खोलकर छाती नंगी करते हुए मुझे दिखाई। जगह-जगह पर ब्लेड या छुरी से काटे के निशान थे, ‘‘ये क्या है…!’’ अनायास मैं पूछ बैठा।

‘‘तुमने शांतनु की कहानी तो सुनी होगी…!’’

मैंने अपनी याददाश्त पर जोर देने की कोशिश की लेकिन कुछ याद नहीं आया। मुझे विमूढ़-सा बना देख उसी ने कहा, ‘‘एक बार देवलोक में देवताओं की गोष्ठी चल रही थी। तभी गंगा वहाँ से उठकर जाने लगीं कि उसका आँचल ढलक गया। सभी की नजरें नीची हो गई लेकिन शांतनु एक-टक उसे ही निहारता रह गया। तब देवाधिपति ने शांतनु को श्राप दिया कि वह मानव योनि में जन्म लेगा और गंगा से विवाह करेगा… बस्स मेरे भाई…!’’ कहते-कहते फिर हँसा।

‘‘यह कटे हुए निशान मेरी गलतियों का खामियाजा है… मन है भाई।’’

मुझे सुरेन्द्र के बारे में लोगों के मुँह से सुनी बातें सच लगीं। विश्वास तो पहले से ही था लेकिन उसके मुँह से उसी के बारे में सुनकर सच की पुष्टि हो गई। मेरा मन वितृष्ति हो गया। उसका पूजा-पाठ सब व्यर्थ लगा। इस बीच विभा नाश्ते का सामान ले आई चाय का प्याला उसकी ओर बढ़ाते हुए विभा ने कहा, ‘‘तो जंतर कब देंगे।’’

मैं हैरानी से विभा को देखने लगा फिर प्याला पकड़ते नजरें सुरेन्द्र पर गई। इस प्रक्रिया में उसकी अंगुलियाँ विभा की अंगुलियों से छू गईं। मुझे लगा सुरेन्द्र ने ऐसा जानबूझ कर किया है। वह उसी की ओर देख रहा था एक टक, बिना पलक झपके। क्षणांश में मेरे आगे उसकी ऐय्याशी के किस्से हकीकत बन कर खड़े हो गए।

‘‘विभा को समझाना पड़ेगा…!’’ मैंने सोचा।

‘‘क्या सोच रहे हो भाई!’’ सुरेन्द्र ने मुझसे कहा। मैं अन्यमनस्क सा उसे देखने लगा। उसके चेहरे पर मुस्कुराहट थी विजयी मुस्कान जो, कुछ भी हासिल करने के बाद चेहरे पर आती है और आँखों में एक अजीब-सी चमक, ऐसी चमक जो किसी वस्तु को हासिल करने के लिए मन में अदम्य लालसा उत्पन्न करती है।

“कहीं विभा को लेकर कोई गलत विचार तो नहीं आ गए उसके मन में।” मुझे अपनी सोच दुरुस्त लगी।

“फिर हो चुका पिंटू ठीक…!” देवी-देवता कहीं ऐसे ही आ जाते हैं सबके अंदर नियम-संयम रखने वाले व्यक्ति से ही ऐसा संभव हो सकता है।

सोचते हुए मैंने सुरेन्द्र की तरफ देखा, ऐसा व्यक्ति जो अपने मन को काबू में न रख सके इंद्रियाँ जिसके वश में न हों भला वह क्या हित कर सकेगा दूसरों का! लेकिन उसके बदन में जख्म अपने पापों का प्रायश्चित क्या यह भी ढकोसला है।

सुरेन्द्र के प्रति मैं कोई सही राय नहीं कायम कर सका फिर भी यह सोचते हुए कि अगली सुबह उससे मिलूँगा और देखूँगा कि क्या उसने अपनी गलतियों के एवज में प्रायश्चित किया है, अपने बदन को फिर एक बार लहूलुहान किया है। देवी के सामने अपनी भूल सुधारने के लिए उसने अपना खून चढ़ाया है, क्या! लेकिन यह भी तय कर लिया कि कल ही पिंटू को शहर ले जाकर किसी अच्छे डॉक्टर या मनोचिकित्सक को दिखाऊँगा।

-हरभजन सिंह मेहरोत्रा


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