मोदी सरकार ने UAPA कानून को बनाया हथियार, मुसलमानों के खिलाफ सबसे ज्यादा इस्तेमाल

मोदी सरकार ने UAPA कानून को बनाया हथियार, मुसलमानों के खिलाफ सबसे ज्यादा इस्तेमाल

ग़ैर कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) के तहत गिरफ्तार किए गए पिंजरा तोड़ संगठन की कार्यकर्ताओं देवांगना कलीता, नताशा नरवाल और जामिया के छात्र आसिफ इक़बाल तन्हा को दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा ज़मानत फिर इस फैसले को दिल्ली पुलिस द्वारा सुप्रीम कोर्ट में चुनौती ने इस कानून को लेकर एक नई बहस छेड़ दी है। पूरे देश में सैकड़ों लोगों को इस कानून के तहत मोदी सरकार और राज्य सरकारें (अधिकतर बीजेपी शासित) जेल में डाल रही है। एक तरह से इसे विरोध की तेज होती आवाज को दबाने का सरकारी हथियार भी कह सकते हैं। सिर्फ दिल्ली दंगों में ही 15 एक्टिविस्टों को इस कानून के तहत निरुद्ध किया गया है। इनमें से तीन युवा एक्टिविस्ट नताशा नरवाल, देवांगना कलीता, आसिफ इक़बाल की अर्जी ही ज़मानत तक पहुंचकर अटक गई है। 12 युवा सदस्य अब भी ज़मानत की राह देख रहे हैं। जिनमें शरजील इमाम, जवाहर लाल नेहरू के छात्र उमर खालिद, एक्टिविस्ट खालिद सैफी, मीरान हैदर जैसे लोग शामिल हैं। ये सभी साल भर से जेल में सड़ रहे हैं। दूर-दूर तक इन्हें न्याय मिलने की कोई उम्मीद फिलहाल नज़र नहीं आ रही है। खौफनाक कानून यूएपीए देश के प्रबुद्ध युवा पीढ़ी की धार कुंद करने में लगी है। सबसे बड़ी कीमत अल्पसंख्यक वर्ग यानी मुसलमान को चुकाना पड़ रहा है।

क्या है दिल्ली दंगों से जुड़ा मामला

पिंजरा तोड़ कार्यकर्ता और जेएनयू की छात्राएँ नताशा नरवाल, देवंगना कलिता और जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्र आसिफ इक़बाल तन्हा पर 2020 में देश की राजधानी दिल्ली में हुए दंगों को भड़काने, उसकी साजिश करने, साजिश में मदद करने आदि के गंभीर आरोप लगाए गये। इन सभी पर यूएपीए लगाया गया। केस को हल्का कहते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने नताशा और देवांगना को गिरफ़्तारी (23 मई 2020 ) के अगले दिन ही ज़मानत दे दी। कोर्ट ने कहा धरना कोई अपराध नहीं होता। लेकिन ज़मानत मिलने के कुछ ही मिनिटों में पुलिस ने उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया और सामूहिक एफआईआर में सैकड़ों पेज का मनगढंत आरोप लगाते हुए उन्हें न्यायिक हिरासत में 300 से अधिक दिन रहने को मजबूर किया गया। जामिया के छात्र आसिफ इक़बाल तन्हा को दंगों के संबंध में ‘सोची समझी साजिश’ का कथित रूप से हिस्सा होने के मामले में गिरफ्तार किया गया। ऐसा कहा जा सकता है कि ये चेहरे सीएए और एनआरसी विरोधी प्रदर्शनों की वजह से सरकार की आँख में खटक रहे थे। इन सभी एक्टिविस्टों की आनन-फानन गिरफ़्तारी ये संकेत दे रही थी कि एजेंसियों की तैयारी पूरी थी और देश को बरगलाने का मुद्दा भी तैयार था।

असहमति की आवाज़ दबाने पर उतारू सरकार

दिल्ली दंगे के एक मामले में ज़मानत देते हुए कोर्ट ने गंभीर टिप्पणी करते हुए कहा, “हम यह बोलने के लिए मजबूर हैं, ऐसा लगता है, कि राज्य (सरकार) के मन में असहमति की आवाज़ को दबाने के चिंता में विरोध करने के लिए संवैधानिक रूप से गारंटीकृत अधिकार और आतंकवादी गतिविधि के बीच की जो रेखा है वो कुछ धुंधली होती दिख रही है। अगर यह सोच ज़ोर पकड़ती है तो यह लोकतंत्र के लिए एक दुखद दिन होगा।” न्यायमूर्ति सिद्धार्थ मृदुल और न्यायमूर्ति ए.जे. भंभानी की पीठ ने जब यह टिपण्णी की तब उनके दिमाग में सिर्फ यही एक केस चल रहा होगा ऐसा संभव नहीं है।उनके दिमाग में वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ का केस भी रहा होगा, पत्रकार सिद्दीकी कप्पन का केस भी रहा होगा। जज साहब के मन में मणिपुर के पत्रकार किशोर चंद वांगखेम की गिरफ्तारी भी रही होगी कि कैसे कोरोना के इलाज में बीजेपी नेता के गाय-गोबर पर सवाल उठाया तो उन्हें राजद्रोह के केस में अंदर कर दिया। यूएपीए अब सिर्फ सरकार की आलोचना और तीखी आलोचना पर नहीं किसी बीजेपी नेता पर सवाल उठाने पर भी लग सकता है।

टाडा व पोटा से खौफनाक कानून यूएपीए

सरकार ने 2004 में प्रिवेंशन ऑफ टेररिजम एक्ट (पोटा) को हटा दिया था। इसे कुछ सुधार के बाद यूएपीए बना दिया गया। पोटा से पहले देश में टेररिस्ट एंड डिसरप्टिव एक्टिविटी (प्रिवेंशन) एक्ट (टांडा) लागू था जिसे 1995 में हटाया गया था। इन कड़े कानूनों को बनाने का मकसद सरकार यह तो दिखाती है कि सिर्फ आतंकियों पर इसका इस्तेमाल किया जाएगा,पर अब तक इन कानूनों का दुरुपयोग अपने ही नागरिकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और अल्पसंख्यक वर्ग पर ही होता आया है। सरकार उनके खिलाफ प्रदर्शन को ही आतंकी गतिविधि मान लेता है। सीएए और एनआरसी इस सरकार की दुखती रग थी जिस पर हाथ रखने की कीमत सैकड़ों बेगुनाह युवा चुका रहे हैं। देश के लिए यह जानना बहुत जरूरी हो गया है कि अनगिनत लोगों को इस तरह से फंसाने वालों को सज़ा कब मिलेगी, कब उनकी जिम्मेदारी, जवाबदेही तय होगी? और इसके पीछे छिपा वह चेहरा कौन-सा है जो इन कानूनों के आड़ में अपना गंदा खेल खेल रहा है।


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