त्रिलोक जेटली की फिल्म ‘गोदान’ : कृषक जीवन की विडम्बना

त्रिलोक जेटली की फिल्म ‘गोदान’ : कृषक जीवन की विडम्बना

प्रेमचंद का कालजयी उपन्यास ‘गोदान’ सर्वाधिक पढ़े जाने वाले उपन्यासों में है। इस उपन्यास में तत्कालीन कृषक जीवन की विडम्बना को जिस शिद्दत से दिखाया गया वह अभूतपूर्व था। ‘होरी’ भारतीय कृषक जीवन का प्रतिनिधि पात्र बन गया। उसका चरित्र देशकाल बद्ध होते हुए भी अपनी सम्वेदना में उसका अतिक्रमण कर गया है। यूं किसानी जीवन और अर्थव्यवस्था में तब से अब तक काफ़ी बदलाव हुआ है। मगर किसानों की समस्याएं खत्म होने का नाम नहीं लेती। कृषक जीवन सापेक्षिक रूप से आज भी सुखद नहीं हुआ है, खासकर छोटे जोत के कृषकों के संदर्भ में। सामाजिक ‘मरजाद’ के बंधन आज भी खत्म नहीं हुए हैं। आज भी छोटे कृषक शादी-ब्याह, मरनी-हरनी बिना कर्ज लिए ‘उचित’ ढंग से नहीं कर पातें।

इस उपन्यास में दो कथाएं साथ-साथ चलती हैं। एक होरी और उसके गांव की कथा। दूसरी रायसाहब, मेंहता, मालती आदि की शहरी जीवन की कथा। भिन्न दिखाई देते हूए भी दोनों कथाओं में परस्पर सम्बद्धता है, क्योंकि गांव व्यापार, पुलिस, कोर्ट-कचहरी, रोजगार के लिए पलायन आदि बहुत से कारणों से शहर से जुड़े रहते हैं। फिर राय साहब जैसे ज़मीदार प्रशासन और किसानों के बीच कड़ी बने हुए थे।

गोदान की इस वृहत कथा को जिसमें कई छोटी-छोटी उप-कथाएं भी हैं दो-ढाई घण्टे की फिल्म में समेंटना कठिन है। निर्माता निर्देशक त्रिलोक जेटली की फिल्म ‘गोदान’ (1963) में भी यह समस्या है। शहरी जीवन से सम्बंधित पात्रों की केवल झलक भर है। मेंहता-मालती प्रसंग बिना उपन्यास पढ़े केवल फिल्म देखकर समझना कठिन है। इसी तरह राय साहब का चरित्र भी खुल नहीं सका है। मगर संकेत अवश्य हैं।

मगर इन सीमाओं के बावजूद होरी और धनिया के पात्र जीवंत बन पड़े हैं। होरी के रूप में राजकुमार और धनिया के लिए कामिनी कौशल की अदाकारी महत्वपूर्ण है। होरी के चरित्र में एक तरह से उदात्तता है; एक तरह का मर्यादाबोध, जो सुख-दु:ख में सम दिखाई देता है, जो सब को माफ़ कर देता है। यों उसमें बच्चों-सा पुलक है जिसको प्रकट होने का मौका बहुत कम मिलता है; जैसे घर ने गाय आने पर या कभी बच्चों के साथ छेड़छाड़ पर। मगर जीवन के अभाव में यह पुलक दबा रह जाता है। वह दुख को भी पी जाता है, कभी दहाड़ मारकर नहीं रोता, बस एक बेबसी चेहरे पर उभर आती है। फूल-सी बच्ची सोना को एक अधेड़ के साथ विवाह की मजबूरी उसके लिए ह्रदय विदारक है। वह जान रहा है कि एक तरह से उसे बेच रहा है, मगर अपने भावी जीवन की हालत जैसे वह देख लेता है। जैसे उसे अहसास हो जाता है कि वह कुछ दिनों का मेंहमान है। पर हर स्थिति में चेहरे में बस एक गहरी उदासी। मृत्यु के अंतिम क्षणों में पूरे जीवन का फ्लैश बैक अत्यंत मार्मिक है। इस दृष्टि से राजकुमार ने होरी के चरित्र को बेहतर निभाया है।

धनिया ग्रामीण लोक जीवन की स्त्री की प्रतिनिधि है जो ऊपर से कठोर मगर अंदर से कोमल होती है। वह समाज के भीतर के खोखलेपन को समझती है, विभिन्न वर्गों के पाखण्ड को जानती है। वह देखती है ये सब कैसे परजीवी की तरह किसानों के मेंहनत पर ऐश कर रहे हैं। इसलिए वह कई मौकों पर विरोध करती है मगर अधिकांशतः होरी के के कारण उसे चुप हो जाना पड़ता है। समझता तो होरी भी है मगर उसके ऊपर ‘मरजाद’ इस कदर हावी है कि वह उसे तोड़ने की हिम्मत नहीं कर सकता। यह उस दौर की विडम्बना भी है। फिर भी उनकी करुणा इससे पराजित नहीं होती। होरी-धनिया दोनों गर्भवती ‘झुनिया’ को घर में रखने पर सहमत हैं, भले बिरादरी का दंड सहना पड़े। यों धनिया का चरित्र विद्रोही है मगर वह भी अंततः ‘लोक मर्यादा’ के भीतर ही है। वह सोचती बहुत कुछ है मगर करती इसकी सीमा में ही है।

फिल्म में इन दोनों पात्रों के अलावा अन्य का चित्रण संक्षिप्त है इसलिए उनके चरित्र का सम्पूर्ण चित्रण सम्भव नहीं हुआ है। गोबर और झुनिया का प्रेम, गोबर का लखनऊ जाना, वापसी, फिर झुनिया को लेकर चले जाना दिखाया अवश्य गया है। गोबर का विद्रोही व्यक्तित्व प्रसंगवश है।

फिल्म के गीत अनजान ने लिखे हैं और संगीत रविशंकर ने दिया है। इस फिल्म के गीत काफी चर्चित हैं। रफी साहब की आवाज़ में भोजपुरी गीत ‘पिपर के पतवा सरीखे डोले मनवा’ जहां उल्लास का गीत है, वहीं मुकेश की आवाज़ में ‘जीया जलत रहत दिन रैन’ मार्मिक है। अन्य गीत भी कर्णप्रिय हैं।


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