विचारधारा का अंत और प्रेमचंद की विचारधारा

विचारधारा का अंत और प्रेमचंद की विचारधारा

प्रेमचंद निर्विवाद रूप से आज भी हिंदी के सर्वाधिक पढ़े जाने वाले व लोकप्रिय लेखक हैं। परंतु इधर, कुछ वर्षों में उन्हें लेकर विवाद भी बहुत बढ़े हैं। हिंदी में जब से विमर्शों का दौर शुरू हुआ है, तब से प्रेमचंद को विमर्शों के केंद्र में लाया गया है। विमर्शों में प्रेमचंद विवादित हैं। ऐसा लगता है कि उन्हें लेकर जिन बिंदुओं पर विवाद है, उन बिंदुओं पर कायदे का संवाद नहीं हो पा रहा है। प्रेमचंद को हिंदी में लंबे समय तक मार्क्सवादी आलोचना पद्धति के सहारे देखने का उद्यम होता रहा है। इस दृष्टि से उन्हें देखने का काम बहुत हद तक हो भी चुका है। इसलिए अब हमें विमर्शों के निहितार्थ को उद्घाटित करने तथा विमर्शों की वैचारिकी के आईने में प्रेमचंद की विचारधारात्मक समझदारी को देखने की जरूरत है।

बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में हिंदी व अन्य दूसरी भारतीय भाषाओं में विमर्शों का दौर शुरू हुआ है। चूंकि इन विमर्शों का स्वभाव अस्मितामूलक है, इसलिए ये विविध किस्म की अस्मिताओं की छटपटाहट और टकराहट पर केंद्रित हैं। इस दौर में अचानक अनेक प्रकार की अस्मिताएँ उभरकर सामने आयी हैं। उनमें नारीवादी अस्मिता, दलित अस्मिता, आदिवासी अस्मिता, पिछड़ी अस्मिता, अति पिछड़ी अस्मिता जैसी अनेक अस्मिताओं का विमर्श साहित्य के केंद्र में प्रमुखता के साथ जगह घेरने लगा है। इन अस्मितावादी विमर्शों ने प्रेमचंद को काफी तीक्ष्णता से लक्ष्य किया है। दलित विमर्श में दलित जीवन संबंधी लेखन के सवालों पर प्रेमचंद को खारिज कर दिया गया है और उन पर सवर्णवादी होने तक की तोहमत लगायी गयी है। इसी प्रकार नारीवादी विमर्श में भी प्रेमचंद को मर्दवादी साहित्यकार के रूप में रेखांकित करने की कोशिशें दिखाई पड़ती हैं। अनुभूति और सहानुभूति के विवादों को लाकर उनके लेखन की परिधि को न सिर्फ संकुचित करने की कोशिशें हुई हैं, बल्कि उनके साहित्य की विश्वसनीयता को भी कमजोर बनाने की कोशिशें दिखाई पड़ती हैं। ऐसे में, अब विमर्शों ने प्रेमचंद की एक महान कथाकार वाली छवि को वैसी ही नहीं रहने दी है, जैसी पहले थी।

साहित्य के भीतर अस्मितामूलक विमर्श उत्तर-आधुनिकतावाद की देन है। यह विचारधारा की जगह विमर्शों को प्रोत्साहित करता है। विमर्शों में जीवन या समाज को समग्रता में देखने की जगह विखण्डित रूप में देखने पर बल रहता है। इसलिए यह डेनियल बेल के विचारों को नारा की तरह बार-बार दुहराता है कि ‛विचारधारा का अंत’ हो गया है। आख़िर उत्तर-आधुनिकतावाद को विचारधारा से इतनी परेशानी क्यों है? जीन-फ्रैंकोइस ल्योतार इस परेशानी का कारण बताता है कि मार्क्सवाद, गांधीवाद, विकासवाद, समाजवाद, प्रजातंत्र आदि जैसी विचारधाराएँ किसी न किसी एक के पक्ष में थीं और दूसरे के विरोध में थीं। इसीलिए उत्तर-आधुनिकतावाद में एक निरपेक्ष महत्व की चीज के रूप में ‛विचारधारा का अंत’ घोषित कर दिया गया है।

ल्योतार के तर्कों के आधार पर विमर्शों की इस वास्तविकता को समझना आसान हो जाता है कि विमर्शों में आखिर प्रेमचंद को इतना लक्ष्य क्यों किया जाता है। कहीं इसलिए तो नहीं कि प्रेमचंद शोषित-उत्पीड़ित मनुष्य के पक्षधर थे और वे उत्पीड़क और शोषक के विरोध में थे। 1936 ई0 में अपनी मृत्यु के कुछ महीनों पहले ‛महाजनी सभ्यता’ नामक लेख में उन्होंने कहा है कि ‛मनुष्य समाज दो भागों में बँट गया है। बड़ा हिस्सा तो मरने और खपने वालों का है, और बहुत ही छोटा हिस्सा उन लोगों का है, जो अपनी शक्ति और प्रभाव से बड़े समुदाय को बस में किये हुए हैं। इन्हें इस बड़े भाग के साथ किसी तरह की हमदर्दी नहीं, जरा भी रुरियायत नहीं। उसका अस्तित्व केवल इस लिए है कि अपने मालिकों के लिए पसीना बहाए, खून गिराए और चुपचाप इस दुनिया से विदा हो जाय।’ प्रेमचंद यहाँ श्रमिकों के पक्ष में खड़े हैं। तो उत्तर-आधुनिकतावाद आख़िर यह क्यों चाहता है कि प्रेमचंद शोषण और उत्पीड़न के बावजूद इन श्रमिकों के पक्ष में खड़ा न हों !

प्रेमचंद लगभग अपने 36 वर्षों की साहित्यिक जीवन-यात्रा में गांधीवाद के रास्ते चल कर मार्क्सवाद तक पहुँचे थे। वे अपने लेख ‛महाजनी सभ्यता’ में मार्क्सवादी समाज व्यवस्था का स्वप्न देखते हुए लिखते हैं कि ‛नई सभ्यता का सूर्य सुदूर पश्चिम से उदय हो रहा है, जिस ने इस नारकीय महाजनवाद या पूंजीवाद की जड़ खोद कर फैंक दी है, जिस का मूल सिद्धान्त यह है कि प्रत्येक व्यक्ति, जो अपने शरीर या दिमाग से मेहनत कर के कुछ पैदा कर सकता है, राज्य और समाज का परम सम्मानित सदस्य हो सकता है और जो केवल दूसरों की मेहनत या बाप-दादों के जोड़े हुए धन पर रईस बना फिरता है, वह पतितम प्राणी है।’ प्रेमचंद समाजवादी व्यवस्था में श्रम के महत्व की प्रतिष्ठा का उल्लेख कर रहे थे और महाजनवादी या पूंजीवादी व्यवस्था को श्रमिकों के शोषण का वास्तविक कारण बता रहे थे। उनके सामने समाज में दो वर्ग मुख्य रूप से थे। एक शोषक और दूसरा शोषित और वे यह मान रहे थे कि इस पूंजीवादी व्यवस्था में दोनों का वर्गीय चरित्र आर्थिक कारकों से निर्मित होते हैं।

अस्मितावादी विमर्शों में आर्थिक आधारों पर वर्गीय चरित्र की समझ का घोर अभाव दिखाई पड़ता है। उदाहरणस्वरूप, जहाँ नारीवादी विमर्श में स्त्रियों के शोषण का प्रमुख कारण पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था को समझा जाता है, वहीं दलित विमर्श में दलित समुदाय के शोषण का मूल कारण वर्ण-व्यवस्था को समझा जाता है। इसी प्रकार से अलग-अलग शोषितों का अलग-अलग समूह बनता है और उन्हें अपने शोषण के आधार भी अलग-अलग दिखाई पड़ते हैं। अस्मितावादी विमर्शों में आर्थिक सवाल गौण रूप में आते हैं। परंतु जब इन विमर्शों में आर्थिक सवाल अर्थात उत्पादन की शक्तियों पर एकाधिकार का सवाल उभर कर सामने आता है, तब ये विमर्श अंततः एक-दूसरे के विरोध में खड़े दिखाई पड़ते हैं। इसलिए अस्मितावादी विमर्शकारों के समक्ष एक चुनौती भरा प्रश्न है कि आख़िर उनके विमर्शों में आर्थिक सवाल इतने गौण क्यों हैं? क्या इस सवाल का जवाब उन्हें उत्तर-आधुनिकतावाद के विमर्शकारों से नहीं मांगना चाहिए?

उत्तर-आधुनिकतावाद मूलतः एक पूंजीवादी परिघटना है। यह पूंजीवाद का विरोधी नहीं है। कुछ विचारकों ने इसे वृद्ध पूंजीवाद का नाम दिया है। इसने आधुनिक पूंजीवाद के आधारों में महज़ कुछ बदलाव भर किया है। यह सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन में गैर-बराबरी का विरोधी होने का दावा तो करता है लेकिन इसे खत्म करता हुआ नहीं दिखता। आखिर इसके इतने दावों के बावजूद किसानों, मजदूरों व वंचित वर्गों की स्थितियों में अपेक्षित बदलाव क्यों नहीं दिखाई पड़ता है? आख़िर क्यों पूंजीपति वर्गों की स्थितियों में इतने गुणात्मक परिवर्तन लक्षित किये जा रहे हैं? तो क्या विचारधाराओं पर इतनी चोटें सिर्फ पूंजीवादी हितों के पोषण के लिए तो नहीं की जा रही हैं?

उत्तर-आधुनिकतावाद समग्रता का विरोधी है, इसीलिए यह व्यक्ति को समाज की इकाई के रूप में नहीं बल्कि एक स्वतंत्र अस्मिता के रूप में देखता है। इसी विचार के कारणस्वरूप बोद्रीलां का ‛उपभोक्ता समाज’ वजूद में आया, जिसने व्यक्ति को एक असंतुष्ट उपभोक्ता बना कर रख दिया है। प्रेमचंद की समाजवादी विचारधारा में व्यक्ति के पतन के लिए इतने अवसर नहीं हैं और न तो किसी एक व्यक्ति को किसी दूसरे व्यक्ति को पतित करने की स्वतंत्रता है। वे ‛महाजनी सभ्यता’ में ही लिखते हैं कि ‛हाँ, इस समाज व्यवस्था ने व्यक्ति को यह स्वाधीनता नहीं दी है कि वह जनसाधारण को अपनी महत्वाकांक्षाओं की तृप्ति का साधन बनाये।’ इसी लेख में वे कहते हैं- ‛निःसन्देह इस नई सभ्यता ने व्यक्ति स्वातंत्र्य के पंजे, नाखून और दांत तोड़ दिये हैं। उसके राज्य में एक पूंजीपति लाखों मजदूरों का खून पीकर मोटा नहीं हो सकता। उसे अब यह आजादी नहीं कि अपने नफे के लिए साधारण वस्तुओं के दाम चढ़ा सके।’ प्रेमचंद जिस विचारधार की हिमायत कर रहे थे, वह निश्चय ही शोषण पर आधारित पूंजीवादी विचारों के प्रतिकूल था। वे जिस व्यवस्था के पक्ष में खड़े थे, उस व्यवस्था में व्यक्ति को समाज की एक इकाई के रूप में देखा गया है।

उत्तर-आधुनिकतावाद व्यक्ति को समाज से काट कर उसे एक स्वतंत्र अस्मिता के रूप में देखता है। ऐसे में, मूलतः दो किस्म की अस्मिताएँ बनती हुई दिखाई पड़ती हैं। एक अस्मिता पूंजीपतियों की है जिनका उत्पदान के साधनों पर एकाधिकार है और दूसरी अस्मिता उपभोक्ताओं की है। इन दोनों अस्मिताओं के पारस्परिक संबंधों को शोषक-शोषित संबंधों के अतिरिक्त किसी दूसरे अर्थों में समझा ही नहीं जा सकता। क्योंकि यह व्यक्ति स्वातंत्र्य के नाम पर एक तरफ पूंजीपतियों को लूट-खसोट करने की पूरी स्वतंत्रता देता है तो दूसरी तरफ जनसाधारण के व्यक्तियों को उपभोक्ता बना कर पूंजीपतियों के हाथों लुटे जाने के लिए स्वतंत्र छोड़ देता है। उत्तर-आधुनिकतावाद सिर्फ पूंजीवादी हितों के पक्ष में विचारधारा की जगह विमर्शों की, मतैक्य की जगह मतभेदों की, समानता की जगह विषमता की स्थितियों को स्थापित करने का विचार रखता है।

उत्तर-आधुनिकतावाद महावृतांतों को भी स्वीकार नहीं करता है। इसलिए यह ‛महावृतांतों की मृत्यु’ की घोषणा करता है। फ़्रांसिस फूकोयामा इतिहास को महावृतांत मानते हुए ‛ इतिहास के अंत’ का ऐलान करता है। वह इतिहास को मिथ्या मानता है और इसे वर्चस्व स्थापित करने के साधन रूप में देखता है। 1990 ई0 में आल्विन कार्नान ‛साहित्य की मृत्यु’ की घोषणा कर देता है। वैसे, इससे पहले भी साहित्यिक विधाओं की मृत्यु के फतवे जारी होते रहे हैं। प्रेमचंद के निधन के चार साल बाद 1940 ई0 में इलियट ने भी ‛उपन्यास की मृत्यु’ की घोषणा की थी। एडमंड विल्सन ने भी कविता को ‛मरती हुई विधा’ कहा था। लेकिन उत्तर-आधुनिकता का परिप्रेक्ष्य कुछ दूसरा ही है। यह किसी भी साहित्यिक रचना को बाकी पाठों की तरह मात्र एक ‛पाठ’ मान कर चलता है और इसका संबंध सिर्फ पाठकों तक सीमित करता है। यह लेखक से रचना का संबंध तोड़ देता है। उत्तर-आधुनिकतावाद रचना से लेखक की केंद्रीय स्थिति को समाप्त कर देता है जबकि किसी भी रचना के केंद्र में लेखक की उपस्थिति अनिवार्य रूप में होती है। लायनल ट्रिलिंग ने एक लेख में ‛लेखक का अंत’ लिखा और रोला बार्थ ने ‛लेखक की मृत्यु’ घोषित की। इन सबों ने अपने लेखों में यह दावा किया कि लेखक के महत्व का दौर समाप्त हो चुका है और अब पाठक के महत्व का दौर शुरू हो चुका है। इस तरह पाठक के महत्व के लिए लेखक की मृत्यु कर दी गयी।

उत्तर-आधुनिकतावाद किसी भी रचना को एक ‛पाठ’ से अधिक कुछ नहीं मानता है और यह पाठकों को उस ‛पाठ’ का अलग-अलग अर्थ निकालने के लिए स्वतंत्रता प्रदान करता है। यह स्वतंत्रता सुनने में अच्छी तो लग सकती है, लेकिन इसी स्वतंत्रता का नतीजा है कि हिंदी के विमर्शों में प्रेमचंद की किसी एक रचना को एक ‛पाठ’ मान कर कोई दलित अस्मिता की कसौटी से अर्थ निकालता है, कोई नारीवादी अस्मिता की कसौटी से तो कोई पिछड़ावादी अस्मिता की कसौटी से अर्थ निकालता है। प्रेमचंद को समग्रता में देखने की कोशिशें नदारद रहती हैं। आखिर पाठक को पाठ मात्र से संबंध रखने पर इतना बल क्यों दिया जाता है और उसे लेखक से काटकर क्यों रख दिया गया है ? ऐसी स्थिति में, विचारणीय है कि कहीं यह पाठक और पाठ के बीच अपने आर्थिक नियमों को तो नहीं लागू कर रहा है ? पाठकों को लेखकों से काट कर कहीं इसलिए तो नहीं रखा गया है कि उपभोक्ता कभी उत्पादक की ओर भूल कर भी आँखें उठा कर नहीं देख सके। जिस प्रकार से यहाँ एक उपभोक्ता को उत्पाद तक सीमित रखा गया है, कहीं उसी प्रकार से एक पाठक को पाठ तक तो सीमित नहीं रखा जा रहा है। इस संदर्भ में ये जरूरी सवाल हैं। वैसे, उत्तर-आधुनिकतावाद में किसी रचना को एक उत्पाद से अधिक कुछ समझा भी नहीं गया है। इसमें किसी रचना का महत्व मात्र इस बात पर निर्भर करता है कि वह कितने आथिर्क मूल्यों का उपार्जन करती है।

उत्तर-आधुनिकतावाद तकनीकी माध्यमों में तीव्र गति से आए परिवर्तनों को लक्षित कर भले साहित्य और लेखक की मृत्यु की घोषणा करता हो, विचारधारा और इतिहास के अंत का फतवा जारी करता हो, भले ही यह साहित्य को भी ‛माल’ की तरह एक बिकाऊ चीज बनाने की कोशिश करता हो, लेकिन इस निर्विवाद सत्य से आँखें मोड़ने की जरूरत नहीं है कि यह ऐसी फतवेबाजी इसलिए कर रहा है कि इस वृद्ध पूंजीवाद को साहित्य, इतिहास और विचारधारा से ही सबसे अधिक खतरा है। प्रेमचंद ने इस पूंजीवाद के चरित्र के बारे में कहा है कि ‛इस महाजनी सभ्यता में सारे कामों की गरज महज पैसा होती है। किसी देश पर राज्य किया जाता है, तो इसलिए कि महाजनों-पूंजीपतियों को ज्यादा से ज्यादा नफा हो।’ यह उत्तर-आधुनिकता पूंजीपतियों के नफे के लिए मुहावरे गढ़ती है और विमर्शों से विचारधारा को विस्थापित करने की इच्छा पालती है। यह पूंजीवाद विरोधी लेखकों की मृत्यु इसलिए चाहती है कि ये लेखक ही इनके मुहावरों का निहितार्थ समझते हैं। इसलिए यह लेखकों से पाठकों को और विचारधारा से जनता का सरोकार खत्म करना चाहती है। प्रेमचंद पूंजीवादी व्यवस्था के क्रूर सिद्धान्तों के विषय में पाठकों से कहते हैं कि ‛ महाजनी सभ्यता ने दुनिया में जो नयी रीति नीतियां चलायी है, उसमें सबसे अधिक और रक्त पिपासु यही व्यवस्था वाला सिद्धान्त है।’

प्रेमचंद निश्चित रूप से हिंदी कथा के प्रस्थान बिंदु हैं। उनसे हिंदी कथा को ही नहीं, समूचे भारतीय कथा साहित्य को एक नयी दिशा मिली है। उन्होंने साहित्य को व्यक्तिवाद और कल्पना की दुनिया से उतारकर जमीन पर खड़ा किया था। उनके लिए साहित्य का अर्थ ‛जीवन की आलोचना है। चाहे वह निबंध के रूप में हो, चाहे कहानियों के रूप में या काव्य के रूप में, उसे हमारे जीवन की आलोचना और व्यख्या करनी चाहिए।’ उनकी दृष्टि में साहित्य ‛अपने काल का प्रतिबिंब होता है।’ उनकी रचनाओं में उनके समय का इतिहास बोलता है। उन्होंने अपने समय और समाज की चुनौतियों को रचनात्मक रूप दिया है। भारतीय समाज में व्याप्त भेद-भाव पर आधारित अनेक बुराइयों की तीखी आलोचनाएँ की हैं। उनकी रचनाएँ उपनिवेशवाद के विरुद्ध रचनात्मक संघर्ष हैं। उनके साहित्य में साम्प्रदायिक शक्तियों की घोर निंदा हुई है। पूंजीवाद के चाल-चरित्र को भी पूरी तरह से उजागर किया गया है। इसे ही वे किसान-मजदूरों के जीवन की तबाही के लिए जिम्मेदार मानते हैं। इसलिए उनकी रचनाओं का मुख्य स्वर साम्राज्यवाद विरोधी है। तभी तो ईदगाह कहानी के एक मामूली बालक हामिद के हाथों लोहे के चिमटे से साम्रज्यवाद के गढ़ को तोड़ते हुए दिखाया है। प्रेमचंद का साहित्य साम्राज्यवाद से संघर्ष का रास्ता दिखाता है। अतएव, दुनिया से साम्राज्यवाद के अंत के बाद भी प्रेमचंद हमारे बीच एक प्रखर बुद्धिजीवी के रूप में मौजूद रहेंगे।


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