विधवा की बेटी
जीर्ण-शीर्ण वस्त्र से
लिपटी गुड़िया
बहुत सुंदर दिखती है।
पड़ोसी घर खटती-पिटती ‘माँ’
वह गुड्डा-गुड़िया खेलती है
रात को माँ से लिपट कर
खटिया में सोयी रहती है।
दिन में खेत को जाती
रात में शौच को निकलती है
उठवा लो एक दिन
हवस का शिकार
बना लो
तन-मन कर दो
जीर्ण-शीर्ण
बहुत सुंदर दिखती है।
एक नहीं दो-चार
बुला लो
कोई हाथ पकड़ लो
कोई पैर दबा लो
चिखेगी-चिल्लाएगी
मुँह में डाल दो उसी का
जीर्ण- शीर्ण दुपट्टा
फिर भी न माने तो
गला दबाकर मारो
दो-चार झपेटा।
उठ न पाएगी वह
रिपोर्ट कहां लिखवाएगी
मंत्री जी से टेलीफोन करवाकर
पुलिसिया रौब डलवाएंगे।
बेटी का रेप हुआ तो क्या हुआ
माँ पर भी आरोप लगवाएंगे
दलित विधवा होकर तुम
बेटी से धंधा करवाती हो?
टूटी-फूटी
झोपड़ी के अंदर
गहरी नींद सोयी है
आंखे है खुली-खुली पर
सांस बंद हो गई है
जीर्ण-शीर्ण वस्त्र से
लिपटी गुड़िया
बहुत सुंदर दिखती है
क्योंकि वह गरीब-दलित
‘विधवा की बेटी’ है।
लोग
कोई नाक पकड़ कर बैठा था
कोई गल्ला फ़ाड़ चिल्ला रहा था
कोई छाती पिट-पिट कर रो रहा था
कोई पेट के बल लेट रहा था।
कोई पैर पटक रहा था
कोई हाथ झिड़क रहा था
कोई अंगुलियां मरोड़ रहा था
कोई पिंडुलिया दबा रहा था।
कोई कडुआ तेल
कोई यूनानी तेल
कोई पुरानी देशी घी
कोई वाम, मलहम
लेकर सभी
कोई हाथों में
कोई पैरों में
कोई छाती में
कोई गल्ले में
कोई पेट में
कोई पीठ में
कोई कमर में
कोई पिण्डलियों में
कोई कोहिनियों में
कोई टेहुनियों में
मल रहा था ऐसे
कोई पाशविक शक्ति
घुस गई हो, और निकालने
की पूरी कोशिश हो रही हो जैसे।
इस कोशिश में
न तो वह बोल पा रहा था
न तो वह सांस ले पा रहा था
न तो सांस छोड़ पा रहा था
पथराई आंखें खुली थी
जिसमें
आंसुओ की दो धाराएँ
बह रही थी
जिसका न कोई किनारा
न कोई अंत था।
हाथों का हिलना
पैरों का डुलना
बंद था
धीरे-धीरे सांसे थम रही थी
जैसे शाम की बेला में समुद्र की
लहरें शांत हो रही थी।
फिर अचानक
हाथ सरक गए
सिर उसके लुढ़क गए
पथराई आंखे
दीवारों को देखती रही
दूर उड़ती मखियाँ
पास आने लगी
और पास बैठे लोग
दूर जाने लगे
दूर इतने दूर की
फिर उसके पास न आ सकेंगे कभी
जिसके बिन एक पल भी नहीं रह पाते थे
लोग।
उसी कमरे में
उसी कमरे के
श्याम पट पर
लिखता हुआ
तुमको मिल
जाऊंगा रोज़।
जिस कमरे में
वर्षों पूर्व
तुमको अंधेरे से
प्रकाश की ओर
जाने के सपने
दिखा रहा था, मैं।
कोई चांद पर गया
कोई बॉर्डर पर
शाहिद हो गया
जाने कितने आए
जाने कितने गए
फिर भी मैं सभी को
उसी कमरे में मिला।
वक्त की आंधियां
कुछ ऐसी आई
टूट गई दीवारें
दब गए श्यामपट
मिट गई हस्तियां
अंधेरे में फिर, गुम
हो गई बस्तियां।
बूढ़ा बरगद खड़ा
रो-रो कर कहता है सब
श्यामपट से जहां
रोशनी मिलती थी यहां
इन लोह-कारखानों से
काली-जहरीली धुंआ
निकलती है अब।
उड़ गई सभी पंक्षियां
बिखर गई सभी बस्तियां
मैंने इसी कमरे से ,तुमको
ज्ञान की रोशनी दिया
उसी रोशनी में तुमने
मुझको ही जला दिया।
स्वार्थ में आकर तुमने
ये क्या कर दिया
मानव होकर भी तुमने
मानवता का
दीपक बुझा दिया।
पछताओगे आखिरी
वक्त में
फिर तुम
उस वक्त न दीवारें होगी
न होगा ये श्यामपट
जिस पर तुम्हें पढाता था
मानवता का पाठ।
सोचता हूँ
अक्सर मैं
मेरा अगला जन्म
इसी कमरे में हो
क्योंकि
श्यामपट है काली
मगर
जिंदगियां करती है
उजाली।
-डॉ. मुकुन्द रविदास (कवि स्नातकोत्तर हिंदी-विभाग, विनोद बिहारी महतो कोयलांचल विश्व विद्यालय, धनबाद में बतौर अस्सिटेंट प्रोफेसर सेवारत हैं। युगप्रवर्तक पत्रिका के सम्पादन के अलावा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कविता, शोध-पत्र प्रकाशित। अम्बेडकर फैलोशिप अवार्ड, खोरठा सम्मान व शिक्षा पार्श्व सम्मान से सम्मानित।)
(प्रिय पाठक, पल-पल के न्यूज, संपादकीय, कविता-कहानी पढ़ने के लिए ‘न्यूज बताओ’ से जुड़ें। आप हमें फेसबुक, ट्विटर, टेलीग्राम, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर भी फॉलो कर सकते हैं।)
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