गुरु दत्त साहब जैसा अद्वितीय शैलीकार, रचनाकार और कलाकार कोई दूसरा न हुआ

गुरु दत्त साहब जैसा अद्वितीय शैलीकार, रचनाकार और कलाकार कोई दूसरा न हुआ

“अल गैहान का एक शजर
परवाज भरती हयात
अहद के उस रजनी
ऐसा खोया की
उसकी फिर सहर न हो सकी
उसे तो ‘प्यासा’ जाना था छोड़कर”

जी हाँ! हम बात कर रहे हैं अद्वितीय शैलीकार, रचनाकार, कलाकार, गुरु दत्त साहब की। नर्तक, कोरियोग्राफर से होते हुए लेखक, अभिनेता, निर्माता, निर्देशक के बहुविध कला यात्रा के मुक्कमल यात्री की। आज ही के दिन अर्थात् 9 जुलाई 1925 को गुरु दत्त का जन्म हुआ वह दौर था प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1918) के पश्चात द्वितीय विश्वयुद्ध के पृष्ठभूमि तैयार होने की अवधि। गुरु दत्त के जन्म से महज 14 वर्ष बाद द्वितीय विश्वयुद्ध (1939) प्रारंभ हो गया था। यह विनाशकारी युद्ध 1945 को समाप्त हुआ। इस समय काल के दौरान भारत पर ब्रिटिश शासन या यूं भी कह सकते हैं कि भारत पर ब्रिटिश उपनिवेश था। उस दौरान 1942 से भारतीय सेना के मुख्य सेनानायक फिल्ड मार्शल ‘सर क्लाइड अचिनलेक’ ने कहा था कि यदि भारतीय सेना नहीं होती तो अंग्रेज दोनों युद्धों (प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध) नहीं जीत पाते।

खैर! हम लौटते हैं विषय-वस्तु पर। गुरुदत्त की माँ बसंती पादुकोण के अनुसार बचपन से गुरु दत्त बहुत नटखट और जिद्दी स्वभाव के थे। प्रश्न पूछना उनका स्वाभाविक गुण था। कभी-कभी उनकी माँ उनके प्रश्नों से पागल हो जाती थीं। किसी की बात न मानना, जो अगर दिल को ठीक लगा तभी मानना। गुस्सा भी बहुत आता था। जो मन में आ गया तो उसे किसी भी हालत में करके ही दम लेना। कहा जाता है की गुरु दत्त का बचपन आर्थिक तंगी और पारिवारिक परेशानियों में बिता और बहुत मुश्किल से उन्होंने तालीम हासिल कीं। बाद में तीन भाइयों और एक बहन के साथ बंगाल आकर बस गए। कलकत्ता आकर मशहूर फिल्म निर्देशक श्याम बेनेगल के चाचा बालकृष्ण बेनेगल जोकि गुरु दत्त के रिश्ते में मामा थे, उनके साथ काफी वक्त गुजारा। बालकृष्ण पेंटर थे। वह फिल्मों के पोस्टर डिजाइन किया करते थे। कलकत्ता में ही गुरु दत्त ने उदयशंकर से नृत्य सीखा और प्रशिक्षण के दौरान एक सर्प नृत्य भी प्रस्तुत की। बाद में वह अपने माता-पिता के पास मुंबई लौट आए।

फिल्म ‘प्यासा’ का एक दृश्य

गुरु दत्त साहब जैसा अद्वितीय शैलीकार, रचनाकार और कलाकार कोई दूसरा न हुआ

हम कह सकते हैं कि उस दौर की सांस्कृतिक राजधानी कलकत्ता में गुरु दत्त के कला का बीजारोपण हुआ। वह फिर बहुत तेजी के साथ पौधे का रूप धारण किया। फिर क्या था? गुरु दत्त एक उम्दा शजर का रूप ग्रहण करने लगे। फलस्वरूप उनकी कालजयी कृति हम सबों के बीच है।

विश्वयुद्ध टाइम मैगजीन की सर्वकालीन 100 सर्वश्रेष्ठ फिल्मों की सूची में गुरु दत्त की ‘ प्यासा’ और ‘कागज के फूल’ भी शामिल हैं। उनकी एक और फिल्म ‘साहिब बीबी और गुलाम’ कालजयी अमर कृति में शुमार है। यह तीन बड़ी फिल्मों के साथ-साथ गुरु दत्त के शुरुआती फिल्मों पर भी नजर डाले चलते हैं। 1945 में बनी फिल्म ‘बरखारानी’ में गुरु दत्त नृत्य निर्देशन के साथ-साथ नायिका के छोटे भाई की एक छोटी सी भूमिका भी की थी। देव आनंद की पहली फिल्म ‘एक हैं’ (1946) में नृत्य निर्देशन किया था। अमिय चक्रवर्ती और ज्ञान मुखर्जी की फ़िल्म ‘गर्ल्स स्कूल’ और ‘संग्राम’ में बतौर सहायक निर्देशक रहे।

गुरु दत्त विजय आनंद, दिलीप कुमार और देव आनंद के साथ

गुरु दत्त साहब जैसा अद्वितीय शैलीकार, रचनाकार और कलाकार कोई दूसरा न हुआ

वादानुसार मित्र देव आनंद ने नवकेतन की दूसरी फिल्म ‘बाजी’ (1951) को बतौर निर्देशन गुरुदत्त को सौपा। उस वक़्त उनकी उम्र महज 26 वर्ष थी। इसकी साफलता से कई लोग स्थापित हुए। गुरु दत्त के साथ देव आनंद, संगीतकार सचिन देव बर्मन और गीतकार साहिर लुधियानवी।

सन् 1948 में प्रदर्शित फिल्म ‘दो भाई’ का गीत “मेरा सुंदर सपना बीत गया…” गाकर गीता राय पूरे देश में चर्चित हो गईं। यही गीत था जो गुरु दत्त के भावुक, कोमल, संवेदन दिल के तारों को झंकृत किया था। तीन साल बात झंकृत तारों को अपनी फिल्म ‘बाज़ी’ से पिरोना शुरू किया। गीता राय का गीत बाली पर फिल्माया गया गीत “सुनो गजर क्या गए….” सुपरहिट हुआ। इसी फिल्म के दौरान अंतर्मुखी व्यकितत्व का एक-दूसरे के प्रति आकर्षण बढ़ा और वे एक-दूसरे के करीब आ गए। इसी बीच गुरुदत्त ने गीता राय के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा। अंततः माता-पिता के राजी से दोनों का विवाह 1953 में हुआ। विवाह के पश्चात गीता राय, गीता दत्त हो गईं।

अगली फिल्म ‘जाल’ में गुरु दत्त ने जॉनी वॉकर को जोड़ा। जो आगे चलकर एक उम्दा हास्य अभिनेता के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कीं। हालांकि, 1953 में आई फिल्म ‘बाज’ उतनी सफल नहीं हो पाई। परंतु उसके बाद ‘आर-पार’, ‘सीआईडी’, ‘मिस्टर एंड मिसेज 55’ को जबरदस्त सफलता मिली। दक्षिण एशिया में जो साफ-सुथरा लोकप्रिय और मनोरंजन सिनेमा 1950 के दशक में उभरा उसमें गुरु दत्त का केंद्रीय योगदान था। गुरु दत्त अब पूरी तरह से मशहूर हो चुके थे। 1945-1955 का दशक उनके आनेवाली कालजयी कृतियों को मजबूत नीव तैयार हो चुका था।

दिलीप कुमार की अनुपस्थिति को गुरु दत्त साहब ने बखूबी अपने हाथ में ले लिया। और बन गए ‘प्यासा’ (1957) के अति भावुक, पूंजी-विरोधी, आदर्शवादी कवि। उसका नायक प्यासा था शोषण के विरोध में, वह प्यासा था पाखंड और आडम्बर कब खिलाफ, वह प्यासा था सही मायने में जीवन मूल्यों का। आडम्बर में जकड़े प्रेमिका को छोड़कर वह नायक एक वेश्या के पास शुकून का एहसास करता है। उसके अपने धनलोभी भाइयों द्वारा उसके मौत का फायदा उठाना चाहते हैं। साहिर लुधियानवी का यह गीत, सचिन देव वर्मन का संगीत-

(1) ये महलों, ये तख़्तों, ये ताजों की दुनिया
ये इनसां के दुश्मन समाजों की दुनिया
ये दौलत के भूखे रिवाज़ों की दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है

(2) जाने वो कैसे लोग थे जिनके
प्यार को प्यार मिला
हमने तो जब कलियाँ माँगी
काँटों का हार मिला

पत्नी गीता दत्त के साथ गुरु दत्त

गुरु दत्त साहब जैसा अद्वितीय शैलीकार, रचनाकार और कलाकार कोई दूसरा न हुआ

मोहम्मद रफी साहब और हेमंत कुमार की आवाज ने जैसे ‘प्यासा’ को संपूर्णता प्रदान कर दी। प्यासा के अपार सफलता के बाद किसी की न सुनकर उन्होंने ‘कागज के फूल'(1959) बना डाली थी। दक्षिण एशिया की पहली सिनेमास्कोप फिल्म कहा जाता है कि यह उनकी निजी जिंदगी से जुड़ी थी। फिल्म में कथानक के केंद्र बिंदु में पेशा, परिवार और प्रेम तीनों की असफलता से मृत्यु केवसाथ घोर दुखांत का अंत होता है। यह फिल्म समय से काफी पहले बना ली गई। फिल्म में फिल्म के नेपथ्य की दुनिया का भयावह चेहरे को उधेड़ती खामोशी को चीरता है। इस फिल्म में कैफी आजमी का यह गीत:

वक्त ने किया क्या हसीं सितम
तुम रहे न तुम हम रहे न हम

गीता दत्त की आवाज को कैसे भुलाया जा सकता है। ‘चौहदवीं का चांद'(1960) और ‘साहिब बीबी और गुलाम’ (1962) के जिक्र के बिना अधुरा है। क्रमश: ‘एम सादिक’ और ‘अबरार अलवी’ ने इस फिल्म के निर्देशन का भार संभाला। पर अदृश्य रूप से गुरू दत्त साहब की संपूर्ण छवि दिखाई दे जाती है। ‘साहब बीबी और गुलाम’ में मीना कुमारी का अभिनय आज भी हमें भौंचक करती है उनकी अभिनय कला की पराकाष्ठा। गुरु दत्त जैसा जौहरी रहमान साहब के प्रतिभा को बखूबी जानते थे। इस तरह रहमान पूर्णत: रहमान साहब साबित हुए।

‘चौदहवीं का चाँद’ लोकप्रिय मुस्लिम समाज का हिस्सा है। गुरू दत्त, वाहिदा रहमान, रहमान, जॉनी वाकर से सजी यह फिल्म भी काफी करोचक और बड़ी फिल्म है। शकील बयायूंनी के गीत को रवि ने संगीत दिया। “चौदहवीं का चाँद हो या आफताब हो जो भी हो तुम खुदा की कसम लाजवाब हो…..” मुहम्मद रफी की आवाज में सुनते हुए आज भी मन सराबोर हो जाता है। ‘बहू रानी’ (1963), ‘भरोसा’ (1963), ‘साझ और सवेरा’ (1964) और ‘सुहागन’ (1964) उनके द्वारा अभिनीत अंतिम फिल्में थीं। उसके द्वारा बनाई गई फिल्में जर्मनी, फ्रांस, जापान में बहुत देखी जाती थी। 10 अक्टूबर, 1964 की रात्रि को प्यासा होकर; अपनी आने वाली कई विशेष कृत्तियों से हम सबों को भी प्यासा छोड़ गए।


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